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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


वह चुप हो गयी। फिर एक मौन छा गया। अब तक थोड़ी-थोड़ी हवा चल रही थी, वह भी बन्द हो गयी।

भुवन ने कहा, “उमस हो रही है। थोड़ा टहला जाये?”

“चलिए।”

दोनों बाग़ में इधर-उधर टहलने लगे। खण्डहर और लता के कुंज के दूसरी ओर हरियाली में जहाँ-तहाँ बच्चों के दल खेल रहे थे; अब तक सब आयाओं द्वारा किलकते-फुदकते अज-शावकों की तरह घेरे जाकर अपने-अपने बाड़ों की ओर ले जाये जा चुके थे; एक दम तोड़ता हुआ-सा अँधेरा छा गया था।

रेखा ने सहसा कहा, “भुवनजी, मैं आपको अपने प्रकृत, स्वस्थ, मुक्त पहलू से ही जानना चाहती हूँ-उसी के सम्पर्क में आप को रखना चाहती हूँ। पर उसके लिए ईमानदारी का तकाज़ा है कि दूसरा पहलू आपसे छिपाऊँ नहीं।”

बात भुवन की संवेदना को छू गयी, पर उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे। उसका हाथ तनिक-सा रेखा की ओर बढ़ा और रह गया। वह कहने को हुआ, “थैंक यू, रेखा जी', पर बात कुछ ओछी लगी। फिर उसने कहा, “रेखा जी, मैंने अपने बारे में इतनी गहराई से कभी नहीं सोचा, पर अगर मुझमें भी ऐसा विघटन है-होगा ही-तो मैं भी यत्न करूँगा कि....”

“नहीं, आप में वैसा नहीं है। आपको-शायद विज्ञान ने बचा लिया। या...” रेखा हँस पड़ी, “कहूँ कि आप अभी उतने सभ्य नहीं हुए!”

भुवन भी हँस दिया।

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