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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


वह सोचने लगा, पुरुषों के लिए जो पत्र होते हैं, उनका क्षेत्र तो इतना संकुचित नहीं होता-स्त्रियों के पत्र क्यों ऐसे होते हैं? पर पुरुषों के पत्र वास्तव में केवल उनके नहीं होते, सबके होते हैं, और स्त्रियों के केवल 'स्त्रियोपयोगी'...लेकिन क्या स्त्री के लिए बस यही बातें उपयोगी हैं - 'हाउ टु विन ए मैन' - 'हाउ टु होल्ड ए मैन' - 'फीड द ब्रूट' - 'द वे टु ए मैन्स हार्ट-थ्रू हिज़ बेली' - आदमी को फाँसो कैसे, वश में कैसे रखो, रिझाओ कैसे - मानो सम्मोहन - वशीकरण के तन्त्र-मन्त्र के युग से हम अभी कुछ भी आगे नहीं गये। और स्वयं स्त्री केवल यह नहीं चाहती, इसका प्रमाण वह नीचे छिपा हुआ 'मेन ओनली' है; हो सकता है कि उसमें केवल यह कौतूहल हो कि पुरुष क्या पढ़ते हैं, कैसे मज़ाक आपस में या स्त्रियों के बारे में करते हैं - वैसा ही कौतूहल, जैसा बहुत-से पुरुषों को स्त्रियों के बारे में हुआ करता है जिसके कारण वह स्त्रियों के जमाव की बातें किवाड़-दरारों में कान लगा कर सुना करते हैं!

एक काल्पनिक समस्या उसके सामने आयी। अगर ये सब पत्र-पत्रिकाएँ बिछी हों, और कोई देखने वाला न हो तो अकेली स्त्री कौन-सा पत्र उठायेगी? क्या किसी का चेहरा देखकर तय किया जा सकता है? कौतुकवश उसने सोचा, अच्छा अब जो स्त्री लाउंज में आएगी उसे देखकर अनुमान लगाऊँगा कि वह 'बोग' पढ़ेगी कि 'लेडीज़ होम' कि 'मेन ओनली'।

धत्! पहली स्त्री जो आयी वह रेखा थी। भुवन ने तुरन्त अपना खेल बन्द कर दिया। रेखा ने पूछा, “मैंने बहुत देर कर दी न? आप इतनी देर क्या करते रहे? यहाँ आपके पढ़ने लायक भी तो कुछ नहीं है”

भुवन ने पूछा, “रेखा जी, ये जो इतने जर्नल यहाँ हैं, इनमें आप को कौन-सा पसन्द है?”

“कौन-से? अरे ये! ये तो मैंने कभी देखे नहीं। कभी बुनाई वग़ैरह के डिज़ाइन के लिए कोई देखा हो, पर इन्हें पढूँ, ऐसी हालत तो कभी नहीं हुई।”

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