ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा : भाग 1
रेखा स्टेशन पर गाड़ी रुकते-न-रुकते उतर पड़ी, पर प्लेटफ़ार्म की पटरी से पैर छूते ही मानो उसके भीतर की स्फूर्ति सुन्न हो गयी; उसने एक बार नज़र उठाकर इधर-उधर देखा भी नहीं कि कोई उसे लेने आया है या नहीं। यन्त्रवत् उसने सामान उतरवाया, कुली के सिर-कन्धे उठवाया, कुली के प्रश्न 'बाहर, बीवी जी?' के उत्तर में अस्पष्ट 'हाँ' कहा, और फिर कुली की गति में मन्त्रबद्ध-सी खिंची चल पड़ने को थी कि पास ही भुवन के स्वर ने कहा, “नमस्कार, रेखा जी!”
तब वह चौंकी नहीं। एक धुन्ध-सी मानो कट गयी; मानो वह जानती थी कि भुवन आएगा ही; वह मुड़ी तो एक खुला आलोक उसके चेहरे पर दमक रहा था : “नमस्कार भुवन जी; मैंने तो समझा कि आप नहीं आएँगे।”
“आप बड़ी जल्दी उतर पड़ीं-मैं तो डिब्बों की ओर ही देखता रहा। अच्छी तो हैं? देखने से तो पहले से अच्छी ही मालूम होती हैं।”
रेखा ने किंचित् विनोदी दृष्टि से उसे सिर से पैर तक देखकर कहा, “और आप-पहले से भी अधिक व्यस्त और अन्तर्मुखी।”
“नहीं तो-ये तो मेरी छुट्टियाँ हैं।”
“हाँ, काम से नहीं, काम के लिए! पर अच्छा है-काम में ही मुक्ति दीख सके, कितना बड़ा सौभाग्य होता है!”
कुली ने पूछा, “जी, चलूँ?”
“हाँ चलो, बाहर ले चलो,” भुवन ने कहा। “चलिए, रेखा जी-”
“हाँ। सुनिए, मैं वाई. डब्ल्यू. में ठहरूँगी - मैंने पहले सूचना दे रखी है। आत्म-निर्भर अर्थात् नौकरी करने वाली स्त्रियाँ वहाँ रह सकती हैं।”
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