ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पुनश्च :
यह पत्र शायद प्रतापगढ़ भेजना ठीक न होगा। तुम आओगी, तो यहीं तुम्हें दूँगा। तुम दोपहर को पहुँचोगी, स्टेशन से ही सीधे काफ़ी हाउस चलेंगे, वहाँ से पुरानी रेज़िडेंसी; उसके खण्डहरों में एकान्त में बैठ कर ही तुमसे बात करूँगा - वहीं यह पत्र तुम्हें दूँगा, वहीं पढ़वाऊँगा...मैं देखना चाहता हूँ इसे पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे की एक-एक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति - क्योंकि उसमें मेरा भाग्य लिखा होगा...। रेखा, अभी तक मैं भी खण्डहर हूँ। तुम भी खण्डहर हो; पर वहाँ से हम खण्डहर नहीं, एक नयी, सुन्दर, सम्पूर्ण, जगमगाती इमारत निर्माण करके निकलेंगे ऐसा मन कहता है...
चन्द्रमाधव द्वारा गौरा को :
प्रिय गौरा जी,
बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया। मैंने पिछले महीने जो पत्र लिखा था, उसकी पहुँच भी आपने न दी। फिर भी संगीत के तरन्नुम में हम बेसुरे लोगों को बिलकुल भूल न गयी होंगी ऐसी आशा करता हूँ।
पर आज कोई बेसुरा तर्क भी मैं छेड़ने नहीं जा रहा हूँ; मैंने निश्चय किया है कि अब अपनी बात नहीं किया करूँगा, हर किसी से उसके प्रिय विषय की चर्चा किया करूँगा। समझ लीजिए कि यही मेरी साधना होगी। देखिए, मैं भी साधना-धर्म को मान गया, और यह आप की व्यक्तिगत विजय है।
भुवन जी यहाँ आये थे, यह मैंने आपको पिछले पत्र में लिखा था। रेखा देवी के विषय में भी लिखा था। वह वास्तव में बड़ी प्रभावशालिनी महिला हैं, नहीं तो भुवन सरीखा आदमी अपनी यात्रा का प्रोग्राम किसी के साथ के लिए बदल दे, यह क्या सम्भव है?
रेखा जी अभी हाल में फिर यहाँ आयी थीं। इधर भुवन से उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था; उन्होंने भुवन को पहाड़ चलने के लिए निमन्त्रित किया था। पहले मेरे भी साथ चलने की बात थी, पर अब प्रोग्राम कुछ बदल गया है। भुवन जी रिसर्च के लिए कश्मीर जा रहे हैं न, मैं तो वहाँ न जा सकूँगा, पर रेखा जी कदाचित् कश्मीर ही जाएँगी। इधर वह कोई नौकरी नहीं कर रही हैं, इसीलिए पूरी छुट्टी है।
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