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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


पुनः चन्द्र द्वारा रेखा को :

रेखा,
तुम (हाँ, मैं जानता हूँ तुम इस सम्बोधन से चौंकोगी; यद्यपि तुम मुझे तुम कह सकती हो, पचासों औरत-आदमी एक दूसरे को तुम कहते हैं और कोई नहीं चौंकता; पर तुम्हारा चौंकना ठीक भी है क्योंकि मैं हज़ारों की तरह तुम्हें तुम नहीं कह रहा हूँ, वैसे कह रहा हूँ जैसे एक एक को कहता है) तुम यहाँ आओगी, दिन-भर के लिए और रात की गाड़ी से वापस चली जाओगी। ठीक है, इतना ही सही। यह भी हो सकता है कि इतना भी तुम इसलिए कर रही हो कि भुवन के पास जाने की बात है, नहीं तो न आती। वह भी सही। यह होता ही है कि स्त्रियाँ जहाँ उदासीनता देखती हैं, वहाँ आकृष्ट होती हैं। पर रेखा, तुम नहीं जानती कि मैंने कितनी बार तुम्हें बुलाना चाहा है, 'तुम' कह कर ही नहीं, 'तू' कह कर - कुछ न कह कर केवल आँखों से, मन से, हृदय की धड़कन से, अपने समूचे अस्तित्व से! कि तुम अगर डेस्टिनी को मानती हो तो कहूँ कि जब से तुम्हें देखा है; तब से यह जानता रहा हूँ कि डेस्टिनी ने मुझे तुम्हारे साथ बाँधा है, और मैं चाहूँ न चाहूँ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं तुम्हारी ओर बढ़ता जाऊँ, तुम दूर जाओ तो तुम्हारे पीछे जाऊँ पृथ्वी के परले छोर तक भी! और आज तीन वर्षों से यह बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, एक-आध दफ़े मैंने ठान कर प्रयत्न भी किया है पर तुम टाल गयी हो। पर आज मैंने निश्चय किया है कि मैं कहूँगा ही, किसी तरह नहीं रुकूँगा।

उस दिन जब मैंने अपने जीवन की, अपने विवाह की कहानी तुम्हें सुनायी थी, तब तुमने पूछा था कि यह सब क्यों मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उस दिन भी मैंने चाहा था कि पूरी बात तुम से कह दूँ। फिर बड़े दिनों में भी - पर तब भी तुम और - और बातें करके टाल गयी थीं। पिछली बार भुवन के कारण कोई मौका ही नहीं मिला। पर एक तरह से मैं उससे खुश ही हूँ। क्योंकि उस बार मुझे और भी स्पष्ट दीख गया कि तुम्हारे बिना मेरी गति नहीं है। यह भी तब मैंने अनुभव किया - तुम चाहे इसे न मानो - कि तुम्हारे अधूरेपन को मैं ही पूरा कर सकता हूँ, मैं ही, और कोई नहीं, कोई नहीं! तुम अधूरेपन से भी इनकार करोगी, तुम भविष्य से भी इनकार करती हो।

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