ई-पुस्तकें >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अन्तराल : प्रथम भाग
रेखा द्वारा चन्द्रमाधव को :
प्रिय चन्द्र,
तुम्हारा पत्र मिला है। सोचती तो हूँ कि चलो, हो ही आऊँ कुछ दिन पहाड़ पर, मगर कुछ निश्चय नहीं कर पाती हूँ। यों अभी सोचने और निश्चय करने के लिए काफ़ी समय भी तो है।
पर तुम्हारे मित्र को मैं क्यों लिखूँ? और मेरी बात का उन पर क्या असर होगा? उनकी बातचीत और सम्पर्क से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ निस्सन्देह, और लखनऊ से प्रतापगढ़ की यात्रा तो एक 'रेवेलेशन' ही था मानो-तुम जानते हो, रेलगाड़ी में बिलकुल अज़नबी से कभी-कभी ऐसा निकट सम्पर्क हो जाता है जिसे साधारण सामाजिक जीवन में प्राप्त करते बरसों भी लग सकते हैं; समाज में आदमी अपने सब छद्य, कवच, अस्त्र-शस्त्र जो धारण किये रहता है और सब ओर से चौकस रहता है, रेल में वह उन्हें उतार कर सहज स्वाभाविक मानव प्राणी हो जाता है...लेकिन यह मैं अपनी बात कहती हूँ; डा. भुवन स्वयं असम्पृक्त और दूर हैं और वह जो तय करेंगे अपने मन से ठीक-बेठीक और सुविधा विचार कर ही करेंगे। फिर भी, तुम ने कहा है, इसलिए यह पत्र साथ में है, तुम्हीं अपने पत्र के साथ उन्हें भेज देना!
इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ-कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर...लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।
आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!
रेखा ---
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