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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


और फिर भुवन ने अपने हाथ और कुहनी की ओर देखा, फिर उसे लगा कि वह चुनचुनाहट अभी गयी नहीं है, वह अपनी कुहनी पर अब भी रेखा के स्पर्श का दबाव अनुभव कर सकता है, और वह दबाव ढकेलने का नहीं है, खींचने का है।

तब?

स्पष्ट ही केवल यात्रा का प्रत्यवलोकन काफ़ी नहीं है; थोड़ा और पीछे देखना होगा। और पीछे देखने में-या क्रम से विश्लेषणपूर्वक देखने में-उसे झिझक क्यों है, वह अनमना क्यों है? सप्ताह-भर से कम का सामान्य सामाजिक परिचय-कौन उसमें ऐसे छायावेष्टित रहःस्थल हैं जिनमें जिज्ञासा की किरण के पहुँचने से वहाँ पलती कोई छुई-मुई अनुरागानुभूति मर जाएगी!

आग की लौ आलोक देती है : उससे हम आलोक विकीर्ण हुआ देखते हैं। और व्यक्ति की तुलना लौ से करें तो यही ध्वनित होता है कि उससे कुछ उत्सृष्ट होकर फैलता है। लेकिन रेखा मानो एक शीतल आलोक से घिरी हुई, उसके आवेष्टन में सँची हुई, अलग, दूर और अस्पृश्य खड़ी थी।

भुवन ने एक बार सिर से पैर तक उसे देखा। घूरना इस बीसवीं सदी में भी अशिष्ट है, लेकिन एक ऐसी पारखी दृष्टि भी होती है जिसे घूरना नहीं कहा जा सकता और जो न केवल अशिष्ट नहीं है बल्कि सौन्दर्य का नैवेद्य मानी जाती है। तब मन-ही-मन भुवन ने कहा, यों ही नहीं रेखा देवी की इतनी चर्चा होती। उनमें कुछ है जिसका उन्मेष जीवन का उन्मेष है और जिसे जान सकना ही एक महान् अनुभूति होगी - फिर वह जानना सुखद हो, दुखद हो।

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