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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।



पाप-पुण्य का भेद


पिछले पृष्ठों पर बताया गया है कि हर एक व्यक्ति चाहे वह भले कर्म करता हो या बुरे निःसन्देह सच्चिदानन्द की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहा है। मानब जीवन की धारा इसी निश्चित दिशा में प्रवाहित हो रही है, उसका पलटना या बदलना किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं क्योंकि वह ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक धर्म वृत्ति है। मनुष्य जन्म से ही उसे साथ लेकर पैदा होता है 1

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब सभी मनुष्य स्वाभाविक धर्म का पालन कर रहे हैं तो फिर पाप-पुण्य का, उचित-अनुचित का, भले-बुरे का भेद क्यों है? किन्हीं कार्यो को धर्म और किन्हीं कार्यो को अधर्म क्यों कहा जाता है? पापी और पुण्यात्मा का भेद क्यों किया जाता है? इन प्रश्नों का तात्विक समाधान जानने के लिए हमें भले और बुरे कर्मों के बीच में जो भेद है, उसे समझना होगा। वास्तव में कर्म तो एक भी बुरा नहीं है, पर उनको करने की व्यवस्था में अन्तर आ जाने से रूप बदल जाते हैं। एक ही कर्म, व्यवस्था-भेद से पाप भी हो सकता है और पुण्य भी। जैसे दान देना एक कर्म है। यदि सत्पात्र को दान दिया जाय तो वह पुण्य हुआ और यदि कुपात्र को दान दिया जाय तो वही पाप है। मैथुन एक कर्म है। यदि वह स्वपत्नी के साथ हो तो उचित है किन्तु यदि परपत्नी के साथ हो तो अनुचित है। 'मद्यपान' एक कर्म है। यदि रोग निवृत्ति के लिए औषधि रूप में उसे सेवन किया जाय तो योग्य है, किन्तु उन्मत्त होने के लिए उसे किया जाय तो अयोग्य है। 'हिंसा एक कर्म है। यदि अत्याचारी, दुष्ट, घातक प्राणी को मार डाला जाय तो उचित है किन्तु उपकारी, हानि न करने वाले, निर्दोष प्राणी को मार डाला जाय तो वह अनुचित है। अदालत की आज्ञानुसार अपराधी को फाँसी देने वाला व्यक्ति पापी नहीं होता, न सिंह, सर्पादि दुष्ट जीवों को हनन करने वाला क्षत्रिय पापी कहा जाता है। किन्तु निर्दोष को मारने वाला अपराधी ठहराया जाता है। परोपकार के लिए, धर्म-कार्य के लिए, विवेकपूर्वक यदि चोरी, ठगी, झूठ, छल का भी आश्रय लेना पड़े तो वह अधर्म नहीं ठहरता। पाठक गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे तो उनकी समझ में यह बात भली प्रकार आ जायगी कि जितने भी कार्य मनुष्य द्वारा होते हैं, वे कर्म स्वत: भले या बुरे नहीं हैं पर उनका प्रयोग जिस रूप में किया जाता है उसके अनुसार वे पाप-पुण्य बन जाते हैं।

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