आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
विभिन्न सम्प्रदायों के अपने-अपने स्वतंत्र धर्म ग्रन्थ हैं। वेद, कुरान, बाइबिल, जिन्दाबस्ता, धम्मपद आदि असंख्य धर्म शास्त्रों में उसी महान् 'सत् की व्याख्या की गई है। अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार इन महान् शास्त्रों ने सत् की व्याख्या की है फिर भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और अपने कथन की अपूर्णता को स्वीकार करते हुए नेति-नेति ही कहते रहे। सभी धर्मों में नये सुधारक होते रहे और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बताकर अपनी रुचि के अनुसार सुधार किए। इन सुधारकों का कथन था कि उन्हें ईश्वर ने ऐसा ही सुधार करने के निमित्त भेजा है। इन सुधारकों में भी सुधार करने वाले होते आये हैं और वे सब भी धर्माचार्य ही थे। सत्य एक है तो भी उसके प्रयोग करने की विधियाँ बदलती रहती हैं। शरीर की ऋतु प्रभावों से रक्षा करनी चाहिए यह एक सच्चाई है पर इसका व्यावहारिक रूप समय-समय पर बदलता रहता है। जाड़े के दिनों में जिन कपड़ों की आवश्यकता थी उनका गर्मी के दिनों में कोई उपयोग नहीं है। इसलिए पोशाक में परिवर्तन करना जरूरी है। यह आक्षेप करना उचित न होगा कि पैगम्बरों ने अपनी बात को ईश्वर की वाणी क्यों कहा? यदि उनके संदेश ही ईश्वर वाणी थे तो अनेक धर्मों के पैगम्बर मतभेद क्यों रखते हैं? इनमें से एक को सच्चा माना जाय तो बाकी सब झूठ ठहरते हैं। तथ्य की बात यह है कि सभी पैगम्बरों की वाणी में ईश्वरीय सन्देश था। उन्होंने जो कुछ कहा अन्तरात्मा की पुकार के आधार पर, ईश्वर की आकाशवाणी के संकेत पर कहा। समयानुसार प्रथाऐं बदलती हैं जैसे कि ऋतुओं के अनुसार पोशाक बदलती हैं। एक व्यक्ति दिसम्बर के महीने में यह शिक्षा देता है कि ऊनी कोट और स्वेटर पहनो तो उसकी शिक्षा सत्य से, धर्म तत्व से परिपूर्ण है। किन्तु यदि दूसरा व्यक्ति जून के महीने में यह कहता है - अब ऊनी कोट की, रुई की लिहाफ की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि पतले कपड़े पहनने चाहिए, तो वह भी झूठा नहीं है।
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