लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704
आईएसबीएन :9781613012796

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

322 पाठक हैं

धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


अपने लिए अपेक्षाकृत कम चाहना और दूसरे की सुबिधा का अधिक ध्यान रखना यह मनोवृत्ति धर्म की आधारशिला है। त्याग, दया, उदारता, दान, सहायता, सेवा, परोपकार, परमार्थ यह पुण्य हैं क्योंकि इनको अपनाने से समाज के लिए मनुष्य उपयोगी बन जाता है और उस उपयोगिता के कारण दोनों पक्षों की समृद्धि बढ़ती है। चोरी, हिंसा, छल, व्यभिचार, स्वार्थ, विश्वासघात, घमण्ड, मिथ्या भाषण, कर्कशता, अत्याचार, जुआ यह आदतें अधर्म कही जाती हैं। इन स्वभावों के साथ जो कार्य किए जाते हैं, वे पाप ठहराये जाते हैं, कारण यह है कि इससे दूसरों को, समाज को हानि होती है। जिन्हें हानि पहुँचाई गई है उनमें बदले की भावना बढ़ती है और कलह खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार नशेबाजी, फिजूल खर्ची, बीमारी, गन्दगी, व्यक्तिगत पाप हैं। इनमें फँसा हुआ मनुष्य समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है अतएब ऐसी आदतों को भी पाप ठहराया जाता है। व्यक्तिगत पाप अधिकतर अपने निजी जीवन को अनुपयोगी बनाते हैं और चोरी आदि सामाजिक पाप दूसरों को अधिक हानि पहुँचाते हैं इसलिए व्यक्तिगत पापों से सामाजिक पापों को बड़ा माना गया है।

पहिले प्रकरण में बताया गया था कि हर मनुष्य सत-अस्तित्व की उन्नति, चित्-ज्ञान वृद्धि, आनन्द-सुख साधना में लगा हुआ है। इन तीनों को प्राप्त करने की इच्छा से ही उसके सारे काम होते हैं। उन कार्यों में कौन अनुचित है? किन को करने से उलटी हानि उठानी पड़ती हैं? इन प्रश्नों का उत्तर ऊपर कहा जा चुका है कि परमार्थ भावना से किए हुए काम ही उत्तम एबं इष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले हैं। गीता के कर्मयोग का यही सारांश है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book