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कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

 

उन्नीसवां बयान

इस कमरे में बीस जोड़ी दुशाखी दीवारगीरें लगी हुई थीं जिनमें इस समय मोमबत्तियां जल रही थीं, इसके सिवाय और कोई शीशा आईना या रोशनी का सामान कमरे में न था और न फर्श वगैरह ही बिछा हुआ था। सैकड़ों किस्म के खुशरंग पत्थर के टुकड़े जमीन पर इस खूबसूरती से जमाए हुए थे कि बेशकीमत गलीचे का गुमान होता था और वहां दिखाई फूल पत्तियों पर असली होने का धोखा होता था। चारों तरफ दीवारों पर मुसौवरों की अनोखी कारीगरी दिखाई देती थी अर्थात् इस खूबी की तसवीरें बनी हुई थीं कि यकायक इस कमरे के अंदर जाते ही रनबीरसिंह को मालूम हुआ कि सैकड़ों आदमी इस कमरे में मौजूद हैं। एक तरफ दीवार से कुछ हटकर संगमरमर की चौकियों पर दो पत्थर की मूरतें बैठाई हुई थीं जिनकी पोशाक और सजावट देखने से मालूम होता था कि ये दोनों राजे हैं, जो अभी बोला ही चाहते हैं। इन्हीं दोनों मूरतों पर देर तक रनबीरसिंह की निगाह अटकी रही और सकते के आलम में ये भी पत्थर की मूरत की तरह देर तक बिना हाथ पैर हिलाए खड़े रहे क्योंकि इन दोनों मूरतों में एक मूरत इनके पिता की थी।

थोड़ी देर बाद जब रनबीरिसिंह की बदहवासी कुछ कम हुई तो उन्होंने कुसुम कुमारी की तरफ घूमकर देखा और दोनों मूरतों में से एक की तरफ इशारा करके कहा–‘‘यह मेरे प्यारे पिता की मूरत है। मुझ पर बड़ा ही प्रेम रखते थे, न मालूम इस समय कहां और किस अवस्था में होगें, दुश्मनों के हाथ से छुट्टी मिली या बैकुंठ तो आज उसे बड़ा ही कष्ट उठाना पड़ता!!’’

इतना कहते हुए रनबीरसिंह उस मूरत के पास जाकर रोने लगे मगर उनकी बातें बेचारी कुसुम कुमारी की समझ में कुछ भी न आईं और न वह इनको कुछ धीरज ही दे सकीं, उनकी हालत देख इस बेचारी की आंखों में भी आंसू भर आए और वह चुपचाप खड़ी रनबीरसिंह का मुंह देखने लगी।

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