ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–(कुसुम की तरफ देखकर) खैर, इन बातों को जाने दो, मैं एक दूसरी बात पूछता हूं, सच-सच कहना देखो झूठ न बोलना।
कुसुम–मैं आपसे झूठ कदापि न बोलूंगी, इसे आप निश्चय जानिए।
रनबीर–मेरे साथ तुम्हारा इस तरह का बर्ताव करना क्या तुम्हारे सरदारों और कारिंदों को बुरा न लगता होगा? वह यह न कहते होंगे कि कुसुम बड़ी निर्लज्ज है?
कुसुम–किसी को बुरा न मालूम होता होगा, हां उन लोगों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती जो नए मुलाजिम हैं।
रनबीर–मैं कैसे विश्वासं करूं?
बीरसेन–(रनबीर से) इसमें आप शक न कीजिए, इतना तो मैं भी कह सकता हूं कि हमारे यहां जितने पुराने मुलाजिम हैं और एक छिपे हुए भेद को जानते हैं, वह आप दोनों को कभी बुरा नहीं कर सकते बल्कि वे लोग बड़े ही खुश होंगे।
रनबीर–भेद कैसा!
कुसुम–भैया देखो अभी मौका नहीं है।
कुसुम की बात सुन बीरसेन चुप हो गया मगर रनबीरसिंह अपनी बात का जवाब न पाने और कुसुम के मना करने से चौंक पड़े और सोचने लगे कि वह कौन-सा भेद है जिसके बारे में बीरसेन ने इशारा किया मगर कुसुम के टोकने से चुप हो रहा उसे खोल न सका।
रनबीरसिंह–(कुसुम से) खैर तुम ही कहो वह क्या भेद है?
कुसुम–कुछ भी नहीं, इसने यों ही कह दिया।
रनबीर–बेशक कोई भेद है जो तुम छिपाती हो, खैर जब मैं तुम्हारे यहां के भेदों को नहीं जान सकता तो इतनी खातिरदारी भी व्यर्थ है और मुझे किसी तरह की उम्मीद तुमसे रखना मुनासिब नहीं!
इतना कहकर रनबीरसिंह चुप हो रहे और उनके चेहरे पर उदासी छा गई, जिसे देख कुसुम कुमारी का जी बेचैन हो गया और वह बीरसेन का मुंह ताकने लगीं। बीरसेन ने कहा, ‘‘बहन, अगर हम लोग आज ही इस भेद को खोल दें तो किसी तरह का नुकसान नहीं, आखिर कभी-न-कभी तो यह भेद खुलेगा ही, फिर इतना दिल दुखाने की क्या जरूरत है!’’
कुसुम–खैर, जो मुनासिब समझो, मुझे यह मंजूर नहीं कि यह किसी तरह उदास हों।
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