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कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

इन सवारों की रोक-टोक बातचीत और चितवनों से जसवंतसिंह का जी खटका। खड़े होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए, कहीं ये लोग रनबीरसिंह के दुश्मन न हों और उनकी गिरफ्तारी की फिक्र में न जा रहे हों? मगर रनबीरसिंह ने तो आज तक कभी किसी को किसी तरह का दुःख नहीं दिया फिर, उनका दुश्मन कोई क्यों होने लगा? लेकिन अगर मान लिया जाए कि उनका दुश्मन कोई नहीं, फिर भी इन सवारों का उस पहाड़ी के नीचे जाना ठीक नहीं, क्योंकि ये लोग जरूर किसी-न-किसी की खोज में है, जिसे पाते ही गिरफ्तार कर लेंगे और जब उस पहाड़ी के नीचे पहुंचकर मरे हुए दोनों घोड़ों को देखेंगे तो जरूर यह खयाल होगा कि इन दोनों में से एक का सवार मैं होऊंगा और दूसरे का सवार पहाड़ी के ऊपर होगा।

जसवंतसिंह सोचने लगे कि अगर ये लोग पहाड़ी के ऊपर जाकर कहीं रनबीरसिंह को देखे लेंगे तो बुरा होगा। अगर दुश्मन समझेंगे तो पकड़ लेंगे या दुश्मन न भी समझकर कुछ पूछेंगे तो वह क्या जवाब देंगे, उनकी तो अक्ल ही ठिकाने नहीं, इन लोगों के ज्यादे पूछने या दिक करने पर अगर वह कुछ कह बैठे या हाथ ही चला बैठें तो मुश्किल होगी! अब तो गांव में चलने की जी नहीं चाहता, चलो पीछे लौटें, एक दिन बिना खाए आदमी मर नहीं सकता।

इन सब बातों को सोच विचार जसवंतसिंह फिर उस पहाड़ी की तरफ लौटे। वे पांचों सवार तो घोड़ा फेंकते निकल गए यह उन्हें कब पा सकते थे। इनके पहुँचने-पहुँचते तक घंटे भर से ज्यादे रात चली गई थी, जब वहां पहुंचे तबीयत घबड़ाई हुई, होश-हवास उड़े, हुए, कलेजा धकधक कर रहा था, धीरे-धीरे पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे।

रात चांदनी थी, पहाड़ी के ऊपर बाग में पहुंचकर उस मंदिर में गए, देखा तो सुनसान है, रनबीरसिंह का कहीं पता ठिकाना नहीं। तबीयत और भी घबड़ा उठी, इधर-उधर ढूंढ़ने लगे, कहीं कुछ नहीं, आखिर लाचार हो सोचते-विचारते जसंवतसिंह पुनः पहाड़ी के नीचे उतरे और मरे हुए दोनों घोड़ों के पास पहुंच सिर पर हाथ रख वहीं जमीन पर बैठ गए।

कुछ देर तक सोचते-विचारते रहे। यकायक बदन में कंपकंपी हुई और सिर उठाया, हिम्मत ने कलेजा ऊंचा किया।

घोड़ों के चारजामों में जो कुछ रुपया अशर्फी और जवाहिरात था, निकालकर कमर में रखा, ऊपर से लंगोटा कसा और एक कटार कमर में छिपाने बाद अपने पहनने के कपड़े वगैरह वहीं फेंक, बदन में मिट्टी मल अवधूती सूरत बना, फिर उस गांव की तरफ चले।

मन में कहते जाते थे, ‘बिना रनबीरसिंह के इस दुनिया में जिंदगी रखनेवाला मैं नहीं हूं। या तो उन्हें ढूंढ़ ही निकालूंगा या अपनी भी वही दशा करूंगा, जो सोच चुका हूं।’’

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