ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
मुंह पर अर्क बेदमिश्क इत्यादि छिड़कने से थोड़ी देर में जसवंतसिंह होश में आए और रानी के सामने बैठकर बोले– ‘‘क्या मैं स्वप्न देख रहा हूं या जाग रहा हूं? नहीं-नहीं, यह स्वप्न नहीं है, मगर स्वप्न नहीं, तो आखिर है क्या? क्या आप ही की मूरत उस पहाड़ी के ऊपर थी? नहीं-नहीं, इसमें तो कोई शक ही नहीं कि वह आप ही की मूरत थी जिसकी बदौलत मेरे दोस्त पर यह आफत आई और मुझको उनके साथ से अलग होना पड़ा! ठीक है, वह संगीन मूरत (पत्थर की मूरत) आप ही की थी जिसे कारीगर संगतराश ने बड़ी मेहनत और कारीगरी से बनाया था, मगर इतनी नजाकत और सफाई उस तसवीर में वह कहां से ला सकता था जो आप में है। रनबीर के नसीब ही में यह लिखा था कि वह उस मूरत ही को देखकर पागल हो जाए और आप तक न पहुंच सके, इसे कोई क्या करे? अपनी-अपनी किस्मत अपने-अपने साथ है!!
इतना कह जसवंतसिंह चुप हो रहे, मगर महारानी से न रहा गया। एक ‘हाय’ के साथ ऊंची सांस लेकर धीमी आवाज से बोलीं– ‘‘हां, वह पत्थर की मूरत तो मेरी ही थी मगर अफसोस, सोचा था कुछ और हो गया कुछ! खैर, अब ईश्वर मालिक है, देखा चाहिए क्या होता है, मैं अपने दुश्मन को खूब पहचानती हूं, आखिर वह जाता कहां है!’’
इतना कह महारानी चुप हो रही। जसवंतसिंह भी मुंह बंद किए बैठे रहे। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, इसके बाद महारानी ने फिर जसवंतसिंह से कहा, ‘‘आज मैं अपने जासूसों को इस बात का पता लगाने के लिए भेंजूगी कि रनबीरसिंह कहां और किस हालत में हैं।’’
जसवंत–जरूर भेजना चाहिए।
महारानी–अभी आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं।
जसवंत–मैं जानता ही नहीं कि वह कहां है।
महारानी–अगर जान भी जाओ तो क्या करोगे?
जसवंत–जो बन पड़ेगा करूंगा! भला बताइए तो सही कि उनका वह दुश्मन कौन है और कहां है?
महारानी–यहां से बीस कोस दक्खिन की तरफ एक गांव है, जिसका मालिक बालेसिंह नामी एक क्षत्रिय है। कहने को तो वह एक जमींदार है, मगर पुराना डाकू है और उसके संगी-साथी इतने दुष्ट हैं कि वह राजाओं को भी कुछ नहीं समझता। जहां तक मैं समझती हूं यह काम उसी का है।
जसवंत–रनबीरसिंह ने उसका क्या बिगाड़ा है?
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