ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीरसिंह को निश्चय हो गया कि इन शब्दों का कहने वाला भी वही है क्योंकि बनिस्बत पहले के यह आवाज कुछ पास मालूम हुई। रनबीरसिंह का ध्यान जमीन की तरफ गया और एक तहखाने के दरवाजे पर निगाह पड़ी जो केवल जंजीर के सहारे बन्द था। रनबीरसिंह ने उस दरवाजे को खोला तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई दीं, हाथ में चिराग लिए हुए नीचे (तहखाने में) उतर गए। यह तहखाना वास्तव में कैदखाना था क्योंकि यहां लोहे के छड़ों से बनी हुई एक कोठरी के अन्दर उदास सुस्त और हथकड़ी-बेड़ी से बेबस एक कैदी पर रनबीरसिंह की निगाह पड़ी और साथ ही इसके यह भी दिखाई दिया कि उस कैदखाने में आने-जाने के लिए एक दूसरी राह भी है जिसका अधखुला दरवाजा सामने की तरफ दिखाई दे रहा था।
कैदी के ऊपर रनबीरसिंह की निगाह पड़ने के पहले ही कैदी का निगाह रनबीरसिंह पर पड़ी क्योंकि कैदखाने का दरवाजा खुलने की आहट से चौंककर वह आने वाले को देखने के लिए पहले ही से तैयार था।
कैदी की अवस्था इस समय बहुत ही बुरी हो रही थी, सर और दाढ़ी के बाल बढ़े रहने और कैदी की तकलीफ बहुत दिनों तक उठाने के कारण उसकी उम्र का अन्दाजा करना इस समय बहुत ही कठिन है, उसकी बड़ी-बड़ी आंखें भी इस समय गड्ढे के अन्दर घुसी हुई थीं और शरीर के ऊपर अन्दाज से ज्यादे मैल चढ़ी हुई थी, इतने पर भी रनबीरसिंह ने उस कैदी को देखने के साथ ही पहचान लिया और कैदी ने भी इनको गहरी निगाह से देखने में किसी तरह की त्रुटि नहीं की। रनबीरसिंह ने जंगला खोला और अन्दर जाकर तेजी के साथ कैदी के पैरों पर गिर पड़े बोलने के लिए उद्योग किया मगर रुलाई ने गला दबा दिया, उधर उस कैदी ने मुहब्बत से रनबीरसिंह के सिर पर हाथ फेरा ही था कि सिर में एक छोटा-सा गड्ढा पाकर चौंक उठा और बोला, ‘‘यद्यपि तूने रंगकर अपना चेहरा और बदन बिगाड़ रखा है तथापि यह गड्ढ़ा और मेरा दिल गवाही देता है कि तू मेरा प्यारा पुत्र रनबीरसिंह है। है, है और अवश्य वही है!!’’
इतने ही में पीछे से आवाज आई, है, है, बेशक वही है! सतगुरु देवदत्त के नाम से धोखा देनेवाला यही रनबीर है! भला कमबख्त अब जाता कहां है!!
रनबीरसिंह ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा तो उसी सरदार पर निगाह पड़ी जो इस जगह और यहां के रहने वालों का मालिक था।
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