लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

266 पाठक हैं

रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

संन्यासी–धूप लगने पर यह रंग और भी काला और चमकीला होगा और महीने भर तक इसमें किसी तरह की कमी न होगी, इसके अन्दर तुम्हारा काम न हुआ तो एक दफे फिर उसी बूटी का रस लगाना।

रनबीर–बहुत अच्छा।

संन्यासी–उसी बूटी को तुमने बखूबी पहचान लिया है न?

रनबीर–जी हां, मैं बखूबी पहचान गया।

संन्यासी–इस पहाड़ी में वह बूटी बहुतायत से मिलेगी। अच्छा अब वहां जाने का रास्ता तुम्हें समझा देना उचित है (इशारा करके) तुम इस तरफ जाओ, थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्याह पत्थर की छोटी-छोटी ढेरियां तुम्हें मिलेंगी, उन्हें बाईं तरफ रखते चले जाना, अर्थात उन ढेरियों के दाहिनी पगडण्डी पर बराबर चले जाना, और वहां का हाल तो तुम्हें अच्छी तरह समझा ही चुके हैं। और कुछ पूछना है या सब बातें ध्यान में अच्छी तरह आ गई?

रनबीर–अब कुछ नहीं पूछना है, सब बातें मैं अच्छी तरह समझ गया।

इसके बाद साधु और संन्यासी से रनबीरसिंह विदा हुए और पश्चिम तरफ चल निकले। इस समय सूरत शक्ल के साथ ही साथ रनबीरसिंह की पोशाक भी बदली हुई थी। वह फकीरी के वेश में थे और हाथ में एक लकड़ी के सिवाय एक छोटी-सी कटार भी कमर में छिपाए हुए थे। दो सौ कदम जाकर एक स्याह पत्थर की ढेरी नजर आई जिसके दाहिनी तरफ पगडण्डी थी। रनबीरसिंह उसी पगडण्डी पर चलने लगे और इसी तरह स्याह पत्थर की ढेरियों को अपना निशान मान कर दो पहर दिन चढ़े तक एक चश्मे के किनारे पहुंचे जिसके दोनों तरफ सायेदार और घने पेड़ लगे हुए थे। रनबीरसिंह ने पीछे फिर कर देखा तो बहुत ऊंचा पहाड़ दिखाई दिया क्योंकि अभी तक वे बराबर नीचे अर्थात् ढाल की तरफ ही उतरते चले गए थे। सामने और दाहिनी तरफ भी ऊंचा पहाड़ था मगर बाईं तरफ जहां तक निगाह काम करती थी बराबर जमीन और घना जंगल दिखाई देता था और यह चश्मा भी उसी तरफ बह कर गया था।

रनबीरसिंह को सफर की थकावट और भूख ने आगे चलने न दिया इसलिए थोड़ी देर तक आराम करना उन्हें उचित जान पड़ा। पास ही के पेड़ों में से जंगली फल जो वहां बहुतायत से लगे हुए थे, तोड़कर खाए और चश्मे के पानी से प्यास बुझा कर पत्थर की एक चट्टान पर लेट रहे, जो चश्मे के किनारे ही सायेदार पेड़ों के नीचे थी। जंगली पेड़ों से छनी हुई निरोग और ठंडी-ठंडी हवा लगने से उन्हें नींद आ गई और वे ऐसा बेखबर सोए कि सूर्यास्त तक उठने की नौबत न आई। सन्ध्या होते-होते दस-पन्द्रह सिपाही एक पालकी को घेरे हुए वहां आ पहुंचे और दम लेने के लिए उसी चश्मे के किनारे थोड़ी दूर तक ठहर गए। उन लोगों की आवाज से रनबीरसिंह की नींद उचट गई। वे घबरा कर उठ बैठे और आसमान की तरफ देख कर अफसोस करने लगे क्योंकि शाम होने के पहले ही उन्हें उस जगह पहुंच जाना चाहिए था, जहां ये जा रहे थे। यद्यपि वह जगह अब बहुत दूर न थी परन्तु रात के समय उन निशानों का पाना बहुत ही मुश्किल था जिनके सहारे वे चश्मे के आगे बढ़कर अपने नियत स्थान पर पहुंचते।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book