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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


किशोरी ने कहा, 'विजय तू भी चलेगा न?'

'यमुना और विजय को यहीं झाँकी मिलती है, क्यों विजय बाबू?' बात काटते हुए घण्टी ने कहा।

'मैं तो जाऊँगा नहीं, क्योंकि छः बजे मुझे एक मित्र से मिलने जाना है; परन्तु घण्टी, तुम तो हो बड़ी नटखट!' विजय ने कहा।

'यह ब्रज है बाबूजी! यहाँ के पत्ते-पत्ते में प्रेम भरा है। बंसी वाले की बंसी अब भी सेवा-कुंज में आधी रात को बजती है। चिंता किस बात की?'

विजय के पास सरककर धीरे-से हँसते हुए उस चंचल किशोरी ने कहा। घण्टी के कपोलों में हँसते समय गड्ढे पड़ जाते थे। भोली मतवाली आँखें गोपियों के छायाचित्र उतारतीं और उभरती हुई वयस-संधि से उसकी चंचलता सदैव छेड़-छाड़ करती रहती। वह एक क्षण के लिए भी स्थिर न रहती, कभी अंगड़ाई लेती, तो कभी अपनी उँगलिया चटकाती, आँखें लज्जा का अभिनय करके जब पलकों की आड़ में छिप जातीं तब भी भौंहें चला करतीं, तिस पर भी घण्टी एक बाल-विधवा है। विजय उसके सामने अप्रतिभ हो जाता, क्योंकि वह कभी-कभी स्वाभाविक निःसंकोच परिहास कर दिया करती। यमुना को उसका व्यंग्य असह्य हो उठता; पर किशोरी को वह छेड़-छाड़ अच्छी लगती-बड़ी हँसमुख लड़की है! - यह कहकर बात उड़ा दिया करती।

किशोरी ने अपनी चादर ले ली थी। चलने को प्रस्तुत थी। घण्टी ने उठते-उठते कहा, 'अच्छा तो आज ललिता की ही विजय है, राधा लौट जाती है!' हँसते-हँसते वह किशोरी के साथ घर से बाहर निकल गयी।

वर्षा बन्द हो गयी थी; पर बादल घिरे थे। सहसा विजय उठा और वह भी नौकर को सावधान रहने के लिए कहकर चला गया।

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