उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'बाबाजी के लिए मघा का जल संचय करना है। वे कहते हैं कि इस जल से अनेक रोग नष्ट होते हैं।'
'रोग चाहे नष्ट न हो; पर वृन्दावन के खारे कूप-जल से तो यह अच्छा ही होगा। अच्छा एक गिलास मुझे भी दो।'
'विजय बाबू, काम वही करना, पर उसकी बड़ी समालोचना के बाद, यह तो आपका स्वभाव हो गया है। लीजिये जल।' कहकर यमुना ने पीने के जल दिया।
उसे पीकर विजय ने कहा, 'यमुना, तुम जानती हो कि मैंने कॉलेज में एक संशोधन समाज स्थापित किया है। उसका उद्देश्य है-जिन बातों मंम बुद्धिवाद का उपयोग न हो सके, उसका खण्डन करना और तदनुकूल आचरण करना। देख रही हो कि मैं छूत-छात का कुछ विचार नहीं करता, प्रकट रूप से होटलों तक में खाता भी हूँ। इसी प्रकार इन प्राचीन कुसंस्कारों का नाश करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, क्योंकि ये ही रूढ़ियाँ आगे चलकर धर्म का रूप धारण कर लेती हैं। जो बातें कभी देश, काल, पात्रानुसार प्रचलित हो गयी थीं, वे सब माननीय नहीं, हिन्दू-समाज के पैरों में बेड़ियाँ हैं।' इतने में बाहर सड़क पर कुछ बालकों के मधुर स्वर सुनायी पड़े, विजय उधर चौंककर देखने लगा, छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमण्डल और पीत वसन धारण किये समस्वर में गाये जा रहे थे-
कस्यचित्किमपिनोहरणीयं मर्म्मवाक्यमपिनोच्चरणीयम्,
श्रीपतेःपदयुगस्मरणीयं लीलयाभवजलतरणीयम्।
उन सबों के आगे छोटी दाढ़ी और घने बालों वाला एक युवक सफेद चद्दर, धोती पहने जा रहा था। गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियों की झोली में कुछ डाल देते थे। विजय ने एक दृष्टि से देखकर मुँह फिराकर यमुना से कहा, 'देखो यह बीसवीं शताब्दी में तीन हजार बी.सी. का अभिनय! समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं।'
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