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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


माझियों ने उसी ओर खेना आरम्भ कर दिया।

दो दिन तक मंगलदेव और विजयचन्द से भेंट ही न हुई। मंगल चुपचाप अपनी किताब में लगा रहता है और समय पर स्कूल चला जाता। तीसरे दिन अकस्मात् यमुना पहले-पहल मंगल के कमरे में आयी। मंगल सिर झुकाकर पढ़ रहा था, उसने देखा नहीं, यमुना ने कहा, 'विजय बाबू ने तकिये से सिर नहीं उठाया, ज्वर बड़ा भयानक होता जा रहा है। किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं लिवा लाते।'

मंगल ने आश्चर्य से सिर उठाकर फिर देखा-यमुना! वह चुप रह गया। फिर सहसा अपना कोट लेते हुए उसने कहा, 'मैं डॉक्टर दीनानाथ के यहाँ जाता हूँ।' और वह कोठरी से बाहर निकल गया।

विजयचन्द्र पलंग पर पड़ा करवट बदल रहा था। बड़ी बेचैनी थी। किशोरी पास ही बैठी थी। यमुना सिर सहला रही थी। विजय कभी-कभी उसका हाथ पकड़कर माथे से चिपटा लेता था।

मंगल डॉक्टर को लिये हुए भीतर चला आया। डॉक्टर ने देर तक रोगी की परीक्षा की। फिर सिर उठाकर एक बार मंगल की ओर देखा और पूछा, 'रोगी को आकस्मिक घटना से दुःख तो नहीं हुआ है?'

मंगल ने कहा, 'ऐसा तो यों कोई कारण नहीं है। हाँ, इसके दो दिन पहले हम लोगों ने गंगा में पहरों स्नान किया और तैरे थे।'

डॉक्टर ने कहा, 'कुछ चिंता नहीं। थोड़ा यूडीक्लोन सिर पर रखना चाहिए, बेचैनी हट जायेगी और दवा लिखे देता हूँ। चार-पाँच दिन में ज्वर उतरेगा। मुझे टेम्परेचर का समाचार दोनों समय मिलना चाहिए।'

किशोरी ने कहा, 'आप स्वयं दो बार दिन में देख लिया कीजिये तो अच्छा हो!'

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