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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'हाँ यमुना! आज तो हम लोगों का रामनगर चलने का निश्चय है। तुमने तो सामान आदि बाँध लिये होंगे-चलोगी न?'

'बहूजी की जैसी आज्ञा होगी।'

इस बेबसी के उत्तर पर विजय के मन मे बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। उसने कहा, 'नहीं यमुना, तुम्हारे बिना तो मेरा, कहते-कहते रुककर कहा, 'प्रबन्ध ही न हो सकेगा-जलपान, पान स्नान सब अपूर्ण रहेगा।'

'तो मैं चलूँगी।' कहकर यमुना कुंज से बाहर आयी। वह भीतर जाने लगी। विजय ने कहा, 'बजरा कब का ही घाट आ गया होगा, हम लोग चलते हैं। माँ को लिवाकर तुरन्त आओ।'

भागीरथी के निर्मल जल पर प्रभात का शीतल पवन बालकों के समान खेल रहा था-छोटी छोटी लहरियों के घरौंदे बनते-बिगडते थे। उस पार के वृक्षों की श्रेणी के ऊपर एक भारी चमकीला और पीला बिम्ब था। रेत में उसकी पीली छाया और जल में सुनहला रंग, उड़ते हुए पक्षियों के झुण्ड से आक्रान्त हो जाता था। यमुना बजरे की खिड़की में से एकटक इस दृश्य को देख रही थी और छत पर से मंगलदेव उसकी लम्बी उँगलियों से धारा का कटना देख रहा था। डाँडों का छप-छप शब्द बजरे की गति में ताल दे रहा था। थोड़ी ही देर में विजय माझी को हटाकर पतवार थामकर जा बैठा। यमुना सामने बैठी हुई डाली में फूल सँवारने लगी, विजय औरों की आँख बचाकर उसे देख लिया करता।

बजरा धारा पर बह रहा था। प्रकृति-चितेरी संसार का नया चिह्न बनाने के लिए गंगा के ईषत् नील जल में सफेदा मिला रही थी। धूप कड़ी हो चली थी। मंगल ने कहा, 'भाई विजय! इस नाव की सैर से अच्छा होगा कि मुझे उस पार की रेत में उतार दो। वहाँ दो-चार वृक्ष दिखायी दे रहे हैं, उन्हीं की छाया में सिर ठण्डा कर लूँगा।'

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