लोगों की राय

उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

371 पाठक हैं

कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


दासी ने कहा, 'आज का भण्डारा है।'

विजय विरक्त होकर अपनी नित्यक्रिया में लगा। साबुन पर क्रोध निकालने लगा, तौलिये की दुर्दशा हो गयी। कल का पानी बेकार गिर रहा था; परन्तु वह आज नहाने की कोठरी से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था। तो भी समय पर स्कूल चला गया। किशोरी ने कहा भी, 'आज न जा, साधुओं का भोजन है, उनकी सेवा...।'

बीच ही में बात काटकर विजय ने कहा, 'आज फुटबॉल है, मुझे शीघ्र जाना है।'

विजय बड़ी उत्तेजित अवस्था में स्कूल चला गया।

मंगल के कमरे का जंगला खुला था। चमकीली धूप उसमें प्रकाश फैलाये थी। वह अभी तक चद्दर लपेटे पड़ा था। नौकर ने कहा, 'बाबूजी, आज भी भोजन न कीजियेगा।'

बिना मुँह खोले मंगल ने कहा, 'नहीं।'

भीतर प्रवेश करते हुए विजय ने पूछा, 'क्यों क्या। आज भी नहीं, आज तीसरा दिन है।'

नौकर ने कहा, 'देखिये बाबूजी, तीन दिन हो गये, कोई दवा भी नहीं करते, न कुछ खाते ही हैं।'

विजय ने चद्दर के भीतर हाथ डालकर बदन टटोलते हुए कहा, 'ज्वर तो नहीं है।'

नौकर चला गया। मंगल ने मुँह खोला, उसका विवर्ण मुख अभाव और दुर्बलता का क्रीड़ा-स्थल बना था। विजय उसे देखकर स्तब्ध रह गया। सहसा उसने मंगल का हाथ पकड़कर घबराते हुए स्वर में पूछा, 'क्या सचमुच कोई बीमारी है?'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book