उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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बरसात के प्रारम्भिक दिन थे। संध्या होने में विलंब था। दशाश्वमेध घाट वाली चुंगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का वृक्ष है, उसके नीचे कितने ही मनुष्य कहलाने वाले प्राणियों का ठिकाना है। पुण्य-स्नान करने वाली बुढ़ियों की बाँस की डाली में से निकलकर चार-चार चावल सबों के फटे आँचल में पड़ जाते हैं, उनसे कितनों के विकृत अंग की पुष्टि होती है। काशी में बड़े-बड़े अनाथालय, बड़े-बड़े अन्नसत्र हैं और उनके संचालक स्वर्ग में जाने वाली आकाश-कुसुमों की सीढ़ी की कल्पना छाती फुलाकर करते हैं; पर इन्हें तो झुकी हुई कमर, झुर्रियों से भरे हाथों वाली रामनामी ओढ़े हुए अन्नपूर्णा की प्रतिमाएँ ही दो दाने दे देती हैं।
दो मोटी ईंटों पर खपड़ा रखकर इन्हीं दानों को भूनती हुई, कूड़े की ईंधन से कितनी क्षुधा-ज्वालाएँ निवृत्त होती हैं। यह एक दर्शनीय दृश्य है। सामने नाई अपने टाट बिछाकर बाल बनाने में लगे हैं, वे पीपल की जड़ से टिके हुए देवता के परमभक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल उन्हीं पर चढ़ाते हैं। वे नग्न-भग्न देवता, भूखे-प्यासे जीवित देवता, क्या पूजा के अधिकारी नहीं उन्हीं में फटे कम्बल पर ईंट का तकिया लगाये विजय भी पड़ा है। अब उसके पहचाने जाने की तनिक भी संभावना नहीं। छाती तक हड्डियों का ढाँचा और पिंडलियों पर सूजन की चिकनाई, बालों के घनेपन में बड़ी-बड़ी आँखें और उन्हें बाँधे हुए एक चीथड़ा, इन सबों ने मिलकर विजय को-'नये' को-छिपा लिया था। वह ऊपर लटकती हुए पीपल की पत्तियों का हिलना देख रहा था। वह चुप था। दूसरे अपने सायंकाल के भोजन के लिए व्यग्र थे।
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