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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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किशोरी सन्तुष्ट न हो सकी। कुछ दिनों के लिए वह विजय को अवश्य भूल गयी थी; पर मोहन को दत्तक ले लेने से उसको एकदम भूल जाना असम्भव था। हाँ, उसकी स्मृति और भी उज्ज्वल हो चली। घर के एक-एक कोने उसकी कृतियों से अंकित थे। उन सबों ने मिलकर किशोरी की हँसी उड़ाना आरम्भ किया। एकांत में विजय का नाम लेकर वह रो उठती। उस समय उसके विवर्ण मुख को देखकर मोहन भी भयभीत हो जाता। धीरे-धीरे मोहन के प्यार की माया अपना हाथ किशोरी की ओर से खींचने लगी। किशोरी कटकटा उठती, पर उपाय क्या था, नित्य मनोवेदना से पीड़ित होकर उसने रोग का आश्रय लिया, औषधि होती थी रोग की, पर मन तो वैसे ही अस्वस्थ था। ज्वर ने उसके जर्जर शरीर में डेरा डाल दिया। विजय को भूलने की चेष्टा की थी। किसी सीमा तक वह सफल भी हुई; पर वह धोखा अधिक दिन तक नहीं चल सका।
मनुष्य दूसरे को धोखा दे सकता है, क्योंकि उससे सम्बन्ध कुछ ही समय के लिए होता है; पर अपने से, नित्य सहचर से, जो घर का सब कोना जानता है कब तक छिपेगा किशोरी चिर-रोगिणी हुई। एक दिन उसे एक पत्र मिला। वह खाट पर पड़ी हुई अपने रूखे हाथों से उसे खोलकर पढ़ने लगी-
'किशोरी,
संसार इतना कठोर है कि वह क्षमा करना नहीं जानता और उसका सबसे बड़ा दंड है 'आत्म दर्शन!' अपनी दुर्बलता जब अपराधी की स्मृति बनकर डंक मारती है, तब उसे कितना उत्पीड़ामय होना पड़ता है। उसे तुम्हें क्या समझाऊँ, मेरा अनुमान है कि तुम भी उसे भोगकर जान सकी हो।
मनुष्य के पास तर्कों के समर्थन का अस्त्र है; पर कठोर सत्य अलग खड़ा उसकी विद्वत्तापूर्ण मूर्खता पर मुस्करा देता है। यह हँसी शूल-सी भयानक, ज्वाला से भी अधिक झुलसाने वाली होती है।
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