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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


'पर मैं एक उत्कट अपराध की अभियुक्त हूँ चाची। आह, मेरा पन्द्रह दिन का बच्चा। मैं कितनी निर्दयी हूँ। मैं उसी का तो फल भोग रही हूँ। मुझे किसी दूसरे ने ठोकर लगाई और मैंने दूसरे को ठुकराया। हाय! संसार अपराध करके इतना अपराध नहीं करता, जितना यह दूसरों को उपदेश देकर करता है। जो मंगल ने मुझसे किया, वही तो हृदय के टुकड़े से, अपने से कर चुकी हूँ। मैंने सोचा था कि फाँसी पर चढ़कर उसका प्रायश्चित्त कर सँकूगी, पर डूबकर बची-फाँसी से बची। हाय रे कठोर नारी-जीवन!! न जाने मेरे लाल को क्या हुआ?'

यमुना, नहीं-अब उसे तारा कहना चाहिए-रो रही थी। उसकी आँखों में जितनी करुण कालिमा थी, उतनी कालिन्दी में कहाँ!

चाची ने उसकी अश्रुधारा पोंछते हुए कहा, 'बेटी! तुम्हारा लाल जीवित है, सुखी है!'

तारा चिल्ला पड़ी, उसने कहा, 'सच कहती हो चाची?'

'सच तारा! वह काशी के एक धनी श्रीचन्द्र और किशोरी बहू का दत्तक पुत्र है; मैंने उसे वहाँ दिया है। क्या इसके लिए तुम मुझे इसके लिए क्षमा करोगी बेटी?'

'तुमने मुझे जिला लिया, आह! मेरी चाची, तुम मेरी उस जन्म की माता हो, अब मैं सुखी हूँ।' वह जैसे एक क्षण के लिए पागल हो गयी थी। चाची के गले से लिपटकर रो उठी। वह रोना आनन्द का था।

चाची ने उसे सान्त्वना दी। इधर घण्टी और लतिका भी पास आ रही थीं। तारा ने धीरे से कहा, 'मेरी विनती है, अभी इस बात को किसी से न कहना-यह मेरा 'गुप्त धन' है।'

चाची ने कहा, 'यमुना साक्षी है।'

चारों के मुख पर प्रसन्नता थी। चारों ओर हृदय हल्का था। सब स्नान करके दूसरी बातें करती हुई आश्रम लौटीं। लतिका ने कहा, 'अपनी संपत्ति संघ को देती हूँ। वह स्त्रियों की स्वयंसेविका की पाठशाला चलावे। मैं उसकी पहली छात्रा होऊँगी। और तुम घण्टी?'

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