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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


जूरी लोग एक कमरे में जा बैठे। यमुना निर्भीक होकर जज का मुँह देख रही थी। न्यायालय में दर्शक बहुत थे। उस भीड़ में मंगल, निरंजन इत्यादि भी थे। सहसा द्वार पर हलचल हुई, कोई भीतर घुसना चाहता था, रक्षियों ने शान्ति की घोषणा की। जूरी लोग आये।

दो ने कहा, 'हम लोग यमुना को हत्या का अपराधी समझते हैं; पर दण्ड इसे कम दिया जाय।' जज ने मुस्करा दिया।

अन्य तीन सज्जनों ने कहा, 'प्रमाण अभियोग के लिए पर्याप्त नहीं हैं।' अभी वे पूरी कहने नहीं पाये थे कि एक लम्बा, चौड़ा, दाड़ी-मूँछ वाला युवक, कम्बल बगल में दबाये, कितने ही को धक्का देता जज की कुरसी की बगल वाली खिड़की से कब घुस आया, यह किसी ने नहीं देखा। वह सरकारी वकील के पास आकर बोला, 'मै हूँ हत्यारा! मुझको फाँसी दो। यह स्त्री निरपराध है।'

जज ने चपरासियों की ओर देखा। पेशकार ने कहा, 'पागलों को भी तुम नहीं रोकते! ऊँघते रहते हो क्या ?

इसी गड़बड़ी में बाकी तीन जूरी सज्जनों ने अपना वक्तव्य पूरा किया, 'हम लोग यमुना को निरपराध समझते हैं।'

उधर वह पागल भीड़ में से निकला जा रहा था। उसका कुत्ता भौंककर हल्ला मचा रहा था। इसी बीच में जज ने कहा, 'हम तीन जूरियों से सहमत होते हुए यमुना को छोड़ देते हैं।'

एक हलचल मच गयी। मंगल और निरंजन-जो अब तक दुश्चिन्ता और स्नेह से कमरे से बाहर थे-यमुना के समीप आये। वह रोने लगी। उसने मंगल से कहा, 'मैं नहीं चल सकती।' मंगल मन-ही-मन कट गया। निरंजन उसे सान्तवा देकर आश्रम तक ले आया।

एक वकील साहब कहने लगे, 'क्यों जी, मैंने तो समझा था कि पागलपन भी एक दिल्लगी है; यह तो प्राणों से भी खिलवाड़ है।'

दूसरे ने कहा, 'यह भी तो पागलपन है, जो पागल से भी बुद्धिमानी की आशा तुम रखते हो!'

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