उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'परसों न्याय का दिन नियत है।' गाला ने कहा।
'तो चलो, आज ही तुम्हें पाठशाला पहुँचा दूँ। अब यहाँ रहना ठीक भी नहीं है।'
'अच्छी बात है। वह सन्दूक लेते आओ।'
नये अपना कम्बल उठाकर चला और गाला चुपचाप सुनहली किरणों को खारी के जल में बुझती हुई देख रही थी - दूर पर एक सियार दौड़ा हुआ जा रहा था। उस निर्जर स्थान में पवन रुक-रुककर बह रहा था। खारी बहुत धीरे-धीरे अपने करुण प्रवाह में बहती जाती थी, पर जैसे उसका जल स्थिर हो-कहीं से आता-जाता न हो। वह स्थिरता और स्पन्दनहीन विवशता गाला को घेरकर मुस्कराने लगी। वह सोच रही थी - शैशव से परिचित इस जंगली भूखंड को छोड़ने की बात।
गाला के सामने अन्धकार ने परदा खींच दिया। तब वह घबराकर उठ खड़ी हुई। इतने में कम्बल और सन्दूक सिर पर धरे नये वहाँ पहुँचा। गाला ने कहा, 'तुम आ गये।'
'हाँ चलो, बहुत दूर चलना है।'
दोनों चले, भालू भी पीछे-पीछे था।
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