उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
गाला ने एक दीर्घ श्वास लिया। उसने कहा, 'नारी जाति का निर्माण विधाता की एक झुँझलाहट है। मंगल! संसार-भर के पुरुष उससे कुछ लेना चाहते हैं, एक माता ही सहानुभूति रखती है; इसका कारण है उसका स्त्री होना। हाँ, तो उसने न्यायालय में अपना क्या वक्तव्य दिया?'
उसने कहा-'पुरुष स्त्रियों पर सदैव अत्याचार करते हैं, कहीं नहीं सुना गया कि अमुक स्त्री ने अमुक पुरुष के प्रति ऐसा ही अन्याय किया; परन्तु पुरुषों का यह साधारण व्यवसाय है, स्त्रियों पर आक्रमण करना! जो अत्याचारी है, वह मारा गया। कहा जाता है कि न्याय के लिए न्यायालय सदैव प्रस्तुत रहता है; परन्तु अपराध हो जाने पर ही विचार करना उसका काम है। उस न्याय का अर्थ है किसी को दण्ड देना! किन्तु उसके नियम उस आपत्ति से नहीं बच सकते। सरकारी वकील कहते हैं-न्याय को अपने हाथ में लेकर तुम दूसरा अन्याय नहीं कर सकते; परन्तु उस क्षण की कल्पना कीजिये कि उसका सर्वस्व लुटा चाहता है और न्याय के रक्षक अपने आराम में हैं। वहाँ एक पत्थर का टुकड़ा ही आपत्तिग्रस्त की रक्षा कर सकता है। तब वह क्या करे, उसका भी उपयोग न करे! यदि आपके सुव्यवस्थित शासन में कुछ दूसरा नियम है, तो आप प्रसन्नता से मुझे फाँसी दे सकते हैं। मुझे और कुछ नहीं कहना।'-वह निर्भीक युवती इतना कहकर चुप हो गयी। न्यायाधीश दाँतों-तले ओठ दबाये चुप थे। साक्षी बुलाये गये। पुलिस ने दूसरे दिन उन्हें ले आने की प्रतिज्ञा की है। गाला! मैं तुमसे भी कहता हूँ कि 'चलो, इस विचित्र अभियोग को देखो; परन्तु यहाँ पाठशाला भी तो देखनी है। अबकी बार मुझे कई दिन लगेंगे!'
'आश्चर्य है, परन्तु मैं कहती हूँ कि वह स्त्री अवश्य उस युवक से प्रेम करती है, जिसने हत्या की है। जैसा तुमने कहा, उससे तो यही मालूम होता है कि दूसरा युवक उसका प्रेमपात्र है, जिसने उसे सताना चाहा था।'
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