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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


मिथ्या धर्म का संचय और प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप और आत्म-प्रतारणा-क्या समाज और धर्म मुझे इससे भी भीषण दण्ड देता कायर मंगल! तुझे लज्जा नहीं आती? सोचते-सोचते वह उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे टीले से उतरा।

शून्य पथ पर निरुद्देश्य चलने लगा। चिन्ता जब अधिक हो जाती है, जब उसकी शाखा-प्रशाखाएँ इतनी निकलती हैं कि मस्तिक उनके साथ दौड़ने में थक जाता है। किसी विशेष चिंता की वास्तविकता गुरुता लुप्त होकर विचार को यान्त्रिक और चेतना विहीन बना देती है। तब पैरों से चलने में, मस्तिक में विचार करने में कोई विशेष भिन्नता नहीं रह जाती, मंगलदेव की वही अवस्था थी। वह बिना संकल्प के ही बाजार पहुँच गया, तब खरीदने-बेचने वालों की बातचीत केवल भन्नाहट-सी सुनाई पड़ती। वह कुछ समझने में असमर्थ था। सहसा किसी ने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया। उसने क्रोध से उसे खींचने वाले को देखा-लहँगा-कुरता और ओढ़नी में एक गूजरी युवती! दूसरी ओर से एक बैल बड़ी निश्चिन्ता से सींग हिलाता, दौड़ता निकल गया। मंगल ने उस युवती को धन्यवाद देने के लिए मुँह खोला; तब वह चार हाथ आगे निकल गई थी। विचारों में बौखलाये हुए मंगल ने अब पहचाना- यह तो गाला है। वह कई बार उसके झोंपड़े तक जा चुका था। मंगल के हृदय में एक नवीन स्फूर्ति हुई, वह डग बढ़ाकर गाला के पास पहुँच गया और घबराये हुए शब्दों में उसे धन्यवाद दे ही डाला। गाला भौचक्की-सी उसे देखकर हँस पड़ी।

अप्रतिभ होकर मंगल ने कहा, 'अरे तो तुम हो गाला!'

उसने कहा, 'हाँ, आज सनीचर है न! हम लोग बाजार करने आये हैं।'

अब मंगल ने उसके पिता को देखा। मुख पर स्वाभाविक हँसी ले आने की चेष्टा करते हुए मंगल ने कहा, 'आज बड़ा अच्छा दिन है कि आपका यहीं दर्शन हो गया।'

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