उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'यह एक विकट प्रश्न है, गाला! जाता हूँ, अभी मुझे घास इकट्ठा करना है। यह बात तो मैं धीरे-धीरे समझने लगा हूँ कि शिक्षितों और अशिक्षितों के कर्मों में अन्तर नहीं है। जो कुछ भेद है वह उनके काम करने के ढंग का है।'
'तो तुमने अपनी कथा नहीं सुनाई!'
'किसी अवसर पर सुनाऊँगा!' कहता हुआ नये चला गया।
'गाला चुपचाप अस्त होते हुए दिनकर को देख रही थी। बदन दूर से टहलता हुआ आ रहा था। आज उसका मुँह सदा के लिए प्रसन्न था। गाला उसे देखते ही उठ खड़ी हुई, बोली, 'बाबा, तुमने कहा था, आज मुझे बाजार लिवा चलने को, अब तो रात हुआ चाहती है।'
'कल चलूँगा बेटी!' कहते हुए बदन ने अपने मुँह पर हँसी ले आने की चेष्टा की, क्योंकि यह उत्तर सुनने के लिए गाला के मान का रंग गहरा हो चला था। वह बालिका के सदृश ठुनककर बोली, 'तुम तो बहाना करते हो।'
'नहीं, नहीं, कल तुझे लिवा ले चलूँगा। तुझे क्या लेना है, सो तो बता।'
'मुझे दो पिंजड़े चाहिए, कुछ सूत और रंगीन कागज।'
'अच्छा, कल ले आना।'
बेटी और बाप काम यह मान निपट गया। अब दोनों अपनी झोंपड़ी में आये और रूखा-सूखा खाने-पीने में लग गये।
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