उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
शबनम वस्त्र सँवारने लगी, उसकी सिकुड़न छुड़ाकर अपनी वेशभूषा को ठीक कर लिया। आभूषणों में दो-चार काँच की चूड़ियाँ और नाक में नथ, जिसमें मोती लटककर अपनी फाँसी छुड़ाने के लिए छटपटाता था। टट्टर के पास पहुँच गये। मिरजा ने देखा- बालिका की वेशभूषा में कोई विशेषता नहीं, परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नहीं था- वसन अलंकार या भादों की भरी हुई नदी-सा यौवन। कुछ नहीं, थीं केवल दो-तीन कलामयी मुख रेखाएँ- जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाएँ थीं, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोड़ा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था, पर कौमार्य में उज्ज्वलता थी। और यह क्या! सूखे कपोलों में दो-दो तीन-तीन लाल मुहाँसे। तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, 'अभाव-अभाव!' कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखों में पुकार उठता था। मिरजा कुछ सिर उठाकर झँझरी से देखने लगा।
'सरकार! कुछ सुनाऊँ दाढ़ीवाले ने हाथ जोड़कर कहा। सोमदेव ने बिगड़ कर कहा, 'जाओ अभी सरकार विश्राम कर रहे हैं।'
'तो हम लोग भी बैठ जाते हैं, आज तो पेट भर जायेगा।' कहकर वह सारंगीवाला वहाँ की भूमि झाड़ने लगा।
झुँझलाकर सोमदेव ने कहा, 'तुम भी एक विलक्षण मूर्ख हो! कह दिया न, जाओ।'
सेवक ने भी गर्व से कहा, 'तुमको मालूम नहीं, सरकार भीतर लेटे हैं।'
'शाहजादे मिरजा जमाल।'
'कहाँ हैं?'
'यहीं, इसी टट्टी में हैं, धूप कम होने पर बाहर निकलेंगे।'
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