उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
एक दिन मिरजा जमाल अपनी छावनी से दूर ताम्बूल-वीथि में बैठे हुए, बैसाख के पहले के कुछ-कुछ गरम पवन से सुख का अनुभव कर रहे थे। ढालवें टीले पर पान की खेती, उन पर सुढार छाजन, देहात के निर्जन वातावरण को सचित्र बना रही थी। उसी से सटा हुआ, कमलों से भरा एक छोटा सा ताल था, जिनमें से भीनी-भीनी सुगन्ध उठकर मस्तक को शीतल कर देती। कलनाद करते हुए कभी-कभी पुरइनों से उड़ जाने पर ही जलपक्षी अपने अस्तित्व का परिचय दे देते। सोमदेव ने जलपान की साम्रगी सामने रखकर पूछा, 'क्या आज यहीं दिन बीतेगा?'
'हाँ, देखो ये लोग कितने सुखी हैं सोमदेव। इन देहाती गृहस्थों में भी कितनी आशा है, कितना विश्वास है, अपने परिश्रम में इन्हें कितनी तृप्ति है।'
'यहाँ छावनी है, अपनी जागीर में सरकार! रोब से रहना चाहिए। दूसरे स्थान पर चाहे जैसे रहिए।' सोमदेव ने कहा।
सोमदेव सहचर, सेवक और उनकी सभा का पंडित भी था। वह मुँहलगा भी था; कभी-कभी उनसे उलझ भी जाता, परन्तु वह हृदय से उनका भक्त था। उनके लिए प्राण दे सकता था।
'चुप रहो सोमदेव! यहाँ मुझे हृदय की खोई हुई शान्ति का पता चल रहा है। तुमने देखा होगा, पिता जी कितने यत्न से संचय कर यह सम्पत्ति छोड़ गये हैं। मुझे उस धन से प्रेम करने की शिक्षा, वे उच्चकोटि की दार्शनिक शिक्षा की तरह गम्भीरता से आजीवन देते रहे। आज उसकी परीक्षा हो रही है। मैं पूछता हूँ कि हृदय में जितनी मधुरिमा है, कोमलता है, वह सब क्या केवल एक तरुणी की सुन्दरता की उपासना की साम्रगी है इसका और कोई उपयोग नही हँसने के जो उपकरण हैं, वे किसी झलमले अंचल में ही अपना मुँह छिपाये किसी आशीर्वाद की आशा में पड़े रहते हैं संसार में स्त्रियों का क्या इतना व्यापक अधिकार है?'
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