उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
बीतने वाला दिन बातों को भुला देता है।
एक दिन किशोरी ने कहा, 'जो कुछ है, हम लोगों के लिए बहुत अधिक है, हाय-हाय करके क्या होगा।'
'मैं भी अब व्यवसाय करने पंजाब न जाऊँगा। किशोरी! हम दोनों यदि सरलता से निभा सकें, तो भविष्य में जीवन हम लोगों का सुखमय होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।'
किशोरी ने हँसकर सिर हिला दिया।
संसार अपने-अपने सुख की कल्पना पर खड़ा है- यह भीषण संसार अपनी स्वप्न की मधुरिमा से स्वर्ग है। आज किशोरी को विजय की अपेक्षा नहीं। निरंजन को भी नहीं। और श्रीचन्द्र को रुपयों के व्यवसाय और चन्दा की नहीं, दोनों ने देखा, इन सबके बिना हमारा काम चल सकता है, सुख मिल सकता है। फिर झंझट करके क्या होगा। दोनों का पुनर्मिलन प्रौढ़ आशाओं से पूर्ण था। श्रीचन्द्र ने गृहस्थी सँभाली। सब प्रबन्ध ठीक करके दोनों विदेश घूमने के लिए निकल पड़े। ठाकुरजी की सेवा का भार एक मूर्ख के ऊपर था, जिसे केवल दो रुपये मिलते थे- वे भी महीने भर में! आह! स्वार्थ कितना सुन्दर है!
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