उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'तो तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है।' कहकर निरंजन ने सिर नीचा कर लिया।
'मैंने इसका स्वर, मुख, अवयव पहचान लिया, यह रामा की कन्या है!' भण्डारी ने भारी स्वर में कहा।
निरंजन चुप था। वह विचार में पड़ गया। थोड़ी देर में बड़बड़ाते हुए उसने सिर उठाया-दोनों को बचाना होगा, दोनों ही- हे भगवान्!
इतने में गोस्वामी कृष्णशरण का शब्द उसे सुनाई पड़ा, 'आप लोग चाहे जो समझें; पर में इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि यमुना हत्या कर सकती है! वह संसार में सताई हुई एक पवित्र आत्मा है, वह निर्दोष है! आप लोग देखेंगे कि उसे फाँसी न होगी।'
आवेश में निरंजन उसके पास जाकर बोला, 'मैं उसकी पैरवी का सब व्यय दूँगा। यह लीजिए एक हजार के नोट हैं, घटने पर और भी दूँगा।'
उपस्थित लोगों ने एक अपरिचित की इस उदारता पर धन्यवाद दिया। गोस्वामी कृष्णशरण हँस पड़े। उन्होंने कहा, 'मंगलदेव को बुलाना होगा, वही सब प्रबन्ध करेगा।'
निरंजन उसी आश्रम का अतिथि हो गया और उसी जगह रहने लगा। गोस्वामी कृष्णशरण का उसके हृदय पर प्रभाव पड़ा। नित्य सत्संग होने लगा, प्रतिदिन एक-दूसरे के अधिकाधिक समीप होने लगे।
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