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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'तुम झूठ बोलते हो विजय! समाज तुमको आज्ञा दे चुका था; परन्तु तुमने उसकी आज्ञा ठुकराकर यमुना का शासनादेश स्वीकार किया। इसमें समाज का क्या दोष है मैं उस दिन की घटना नहीं भूल सकती, वह तुम्हारा दोष है तुम कहोगे कि फिर मैं सब जानकर भी तुम्हारे साथ क्यों घूमती हूँ; इसलिए कि मैं इसे कुछ महत्त्व नहीं देती। हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, उसमें कुछ अधिकार हो तब तो उसके लिए कुछ सोचना-विचारना चाहिए। और जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, वहाँ प्राकृतिक, स्त्री जनोचित प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्गिक अधिकार है-जैसा कि घटनावश प्रायः स्त्रियाँ किया करती हैं-उसे क्यों छोड़ दूँ! यह कैसे हो, क्या हो और क्यों हो-इसका विचार पुरुष करते हैं। वे करें, उन्हें विश्वास बनाना है, कौड़ी-पाई लेना रहता है और स्त्रियों को भरना पड़ता है। तब इधर-उधर देखने से क्या! 'भरना है'-यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यभिचार कहकर तिरस्कार से, अधमर्ण की सान्त्वना के लिए यह उत्तमर्ण का शाब्दिक, मौलिक प्रलोभन या तिरस्कार है, समझे?' घण्टी ने कहा।
विजय का नशा उखड़ गया। उसने समझा कि मैं मिथ्या ज्ञान को अभी तक समझता हुआ अपने मन को धोखा दे रहा हूँ। यह हँसमुख घण्टी संसार के सब प्रश्नों को सहन किये बैठी है। प्रश्नों को गम्भीरता से विचारने का मैं जितना ढोंग करता हूँ, उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा है-वह चुपचाप सोचने लगा।
घण्टी फिर कहने लगी, 'समझे विजय! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम ब्याह करके यदि उसका प्रतिदान करना चाहते हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं। यह विचार तो मुझे कभी सताता नहीं। मुझे जो करना है, वहीं करती हूँ, करूँगी भी। घूमोगे घूमूँगी, पिलाओगे पीऊँगी, दुलार करोगे हँस लूँगी, ठुकराओगे तो रो दूँगी। स्त्री को इन सभी वस्तुओं की आवश्यकता है। मैं उन सबों को समभाव से ग्रहण करती हूँ और करूँगी।'
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