उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
किशोरी ने सगर्व एक बार श्रीचन्द्र की ओर देखा, फिर सहसा कातर भाव से बोली, 'विजय रूठकर मथुरा चला गया है!'
श्रीचन्द्र ने पक्के व्यापारी के समान कहा, 'कोई चिन्ता नहीं, वह आ जायेगा। तब तक हम लोग यहाँ रहें, तुम्हें कोई कष्ट तो न होगा?'
'अब अधिक चोट न पहुँचाओ। मैं अपराधिनी हूँ, मैं सन्तान के लिए अन्धी हो रही थी! क्या मैं क्षमा न की जाऊँगी किशोरी की आँखों से आँसू गिरने लगे।
'अच्छा तो उसे बुलाने के लिए मुझे जाना होगा।'
'नहीं, उसे बुलाने के लिए आदमी गया है। चलो, हाथ-मुँह धोकर जलपान कर लो।'
अपने ही घर में श्रीचन्द्र एक अतिथि की तरह आदर-सत्कार पाने लगा।
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