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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


चन्दा एक बार घूमकर खड़ी हो गयी। उसने कहा, 'ऐसा कदापि नहीं होगा। अभी मेरे पास एक लाख रुपया है। मैं कम सूद पर तुम्हारी सब सम्पत्ति अपने यहाँ रख लूँगी। बोलो, फिर तो तुमको किसी दूसरे की बात न सुननी होगी।'

फिर हँसते हुए उसने कहा, 'और मेरा तगादा तो इस जन्म में छूटने का नहीं।'

श्रीचन्द्र की धड़कन बढ़ गयी। उसने बड़ी प्रसन्नता से चन्दा के कई चुम्बन लिये और कहा, 'मेरी सम्पत्ति ही नहीं, मुझे भी बन्धक रख लो प्यारी चन्दा! पर अपनी बदनामी बचाओ, लाली भी हम लोगों का रहस्य न जाने तो अच्छा है, क्योंकि हम लोग चाहे जैसे भी हों, पर सन्तानें तो हम लोगों की बुराइयों से अनभिज्ञ रहें। अन्यथा उसके मन में बुराइयों के प्रति अवहेलना की धारणा बन जाती है। और वे उन अपराधों को फिर अपराध नहीं समझते, जिन्हें वे जानते हैं कि हमारे बड़े लोगों ने भी किया है।'

'लाली के जगने का तो अब समय हो रहा है। अच्छा, वहीं चाय पीजियेगा और सब प्रबन्ध भी आज ही ठीक हो जायेगा।'

गाड़ी प्रस्तुत थी, चन्दा जाकर बैठ गयी। श्रीचन्द्र ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर अपने हृदय को सब तरह के बोझों से हल्का किया।

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