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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


चंदा थाली लिये आयी। श्रीचन्द्र उसकी सौन्दर्य-छटा देखकर पल-भर के लिए धन-चिंता-विस्मृत हो गया। हृदय एक बार नाच उठा। वह उठ बैठा। चन्दा ने सामने बैठकर उसकी भूख लगा दी। ब्यालू करते-करते श्रीचन्द्र ने कहा, 'चन्दा, तुम मेरे लिए इतना कष्ट करती हो।'

चन्दा-'और तुमको इस कष्ट में चिंता क्यों है?'

श्रीचन्द्र-'यही कि मैं इसका क्या प्रतिकार कर सकूँगा!'

चन्दा-'प्रतिकार मैं स्वयं कर लूँगी। हाँ, पहले यह तो बताओ-अब तुम्हारे ऊपर कितना ऋण है?'

श्रीचन्द्र-'अभी बहुत है।'

चन्दा-'क्या कहा! अभी बहुत है।'

श्रीचन्द्र-'हाँ, अमृतसर की सारी स्थावर सम्पत्ति अभी बन्धक है। एक लाख रुपया चाहिए।'

एक दीर्घ निःस्वास लेकर श्रीचन्द्र ने थाली टाल दी। हाथ-मुँह धोकर आरामकुर्सी पर जा लेटा। चन्दा पास की कुर्सी खींचकर बैठ गयी। अभी वह पैंतीस के ऊपर की नहीं है, यौवन है। जाने-जाने को कर रहा है, पर उसके सुडौल अंग छोड़कर उससे जाते नहीं बनता। भरी-भरी गोरी बाँहें उसने गले में डालकर श्रीचन्द्र का एक चुम्बन लिया। श्रीचन्द्र को ऋण चिंता फिर सताने लगी। चन्दा ने श्रीचन्द्र के प्रत्येक श्वास में रुपया-रुपया का नाद देखा, और बोली, 'एक उपाय है, करोगे?'

श्रीचन्द्र ने सीधे होकर बैठते हुए पूछा, 'वह क्या?'

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