उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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घण्टी और विजय बाथम के बँगले पर लौटकर गोस्वामी जी के सम्बन्ध में काफी देर तक बातचीत करते रहे। विजय ने अंत में कहा, 'मुझे तो गोस्वामी की बातें कुछ जँचती नहीं। कल फिर चलूँगा। तुम्हारी क्या सम्मति है, घण्टी?'
'मैं भी चलूँगी।'
वे दोनों उठकर सरला की कोठरी की ओर चले गये। अब दोनों वहीं रहते हैं। लतिका ने कुछ दिनों से बाथम से बोलना छोड़ दिया है। बाथम भी पादरी के साथ दिन बिताता है आजकल उसकी धार्मिक भावना प्रबल हो गयी है।
मूर्तिमती चिंता-सी लतिका यंत्र चलित पाद-विपक्ष करती हुई दालान में आकर बैठ गयी। पलकों के परदे गिरे हैं। भावनाएँ अस्फुट होकर विलीन हो जाती हैं- मैं हिन्दू थी...हाँ फिर...सहसा आर्थिक कारणों से पिता...माता ईसाई....यमुना के पुल पर से रेलगाड़ी आती थी...झक...झक...झक आलोक माला का हार पहने सन्ध्या में...हाँ यमुनी की आरती भी होती थी...अरे वे कछुए...मैं उन्हें चने खिलाती थी...पर मुझे रेलगाड़ी का संगीत उन घण्टों से अच्छा लगता...फिर एक दिन हम लोग गिरजाघर जा पहुँचे। इसके बाद...गिरजाघर का घण्टा सुनने लगी...ओह। मैं लता-सी आगे बढ़ने लगी...बाथम एक सुन्दर हृदय की आंकाक्षा-सा सुरुचिपूर्ण यौवन का उन्माद...प्रेरणा का पवन...मैं लिपट गयी...क्रूर...निर्दय...मनुष्य के रूप में पिशाच....मेरे धन का पुजारी...व्यापारी...चापलूसी बेचने वाला। और यह कौन ज्वाला घण्टी...बाथम अहसनीय...ओह!
लतिका रोने लगी। रूमाल से उसने मुँह ढक लिया। वह रोती रही। जब सरला ने आकर उसके सिर पर हाथ फेरा, तब वह चैतन्य हुई-सपने से चौंककर उठ बैठी। लैंप का मंद प्रकाश सामने था। उसने कहा- 'सरला, मैं दुःस्वप्न देख रही थी।'
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