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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।

14

उत्सव का समारोह था। गोस्वामी जी व्यासपीठ पर बैठे हुए थे। व्याख्यान प्रारम्भ होने वाला ही था; उसी साहबी ठाट से घण्टी को साथ लिये सभा में विजय आया। आज यमुना दुःखी होकर और मंगल ज्वर में, अपने-अपने कक्ष में पड़े थे। विजय सन्नद्ध था- गोस्वामी जी का विरोध करने की प्रतिज्ञा, अवहेलना और परिहास उसकी आकृति से प्रकट थे।

गोस्वामी जी सरल भाव से कहने लगे- 'उस समय आर्यावर्त्त में एकान्त शासन का प्रचण्ड ताण्डव चल रहा था। सुदूर सौराष्ट्र में श्रीकृष्ण के साथ यादव अपने लोकतंत्र की रक्षा में लगे थे। यद्यपि सम्पन्न यादवों की विलासिता और षड़यंत्रों से गोपाल को भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं, फिर भी उन्होंने सुधर्मा के सम्मान की रक्षा की। पांचाल में कृष्ण का स्वयम्बर था। कृष्ण के बल पर पाडण्व उसमें अपना बल-विक्रम लेकर प्रकट हुए। पराभूत होकर कौरवों ने भी उन्हें इन्द्रप्रस्थ दिया। कृष्ण ने धर्म राज्य स्थापना का दृढ़ संकल्प किया था, अतः आततायियों के दमन की आवश्यकता थी। मागध जरासन्ध मारा गया। सम्पूर्ण भारत में पाण्डवों की, कृष्ण की संरक्षता में धाक जम गयी। नृशंस यज्ञों की समाप्ति हुई। बन्दी राजवर्ग तथा बलिपशु मुक्त होते ही कृष्ण की शरण में हुए। महान हर्ष के साथ राजसूय यज्ञ हुआ। राजे-महाराजे काँप उठे। अत्याचारी शासकों को शीत-ज्वर हुआ। उस समय धर्मराज की प्रतिष्ठा में साधारण कर्मकारों के समान नतमस्तक होकर काम करते रहे। और भी एक बात हुई। आर्यावर्त्त ने उसी निर्वासित गोपाल को आश्चर्य से देखा, समवेत महाजनों में अग्रपूजा और अर्घ्य का अधिकारी! इतना बड़ा परिवर्तन! सब दाँतों तले उँगली दाबे हुए देखते रहे। उसी दिन भारत ने स्वीकार किया - गोपाल पुरुषोत्तम है।

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