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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


प्राचीनतंत्र के पक्षपाती नृशंस राजन्य-वर्ग मन्वन्तर को मानने के लिए प्रस्तुत न थे; वह मनन की विचारधारा सामूहिक परिवर्तन करने वाली थी। क्रमागत रूढ़ियाँ और अधिकार उसके सामने काँप रहे थे। इन्द्र पूजा बन्द हुई, धर्म का अपमान! राजा कंस मारा गया, राजनीतिक उलट-फेर!! ब्रज पर प्रलय के बादल उमड़े। भूखे भेड़ियों के समान, प्राचीनता के समर्थक यादवों पर टूट पड़े। बार-बार शत्रुओं को पराजित करके भी श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि ब्रज को छोड़ देना चाहिए।

वे यदुकुल को लेकर नवीन उपनिवेश की खोज में पश्चिम की ओर चल पड़े। गोपाल ने ब्रज छोड़ दिया। यही ब्रज है। अत्याचारियों की नृशंसता से यदुकुल के अभिजात-वर्ग ने ब्रज को सूना कर दिया। पिछले दिनों में ब्रज में बसी हुई पशुपालन करने वाली गोपियाँ, जिनके साथ गोपाल खेले थे, जिनके सुख को सुख और दुःख समझा, जिनके साथ जिये, बड़े हुए, जिनके पशुओं के साथ वे कड़ी धूप में घनी अमराइयों में करील के कुंजों में विश्राम करते थे-वे गोपियाँ, वे भोली-भाली सरल हृदय अकपट स्नेह वाली गोपियाँ, रक्त-मांस के हृदय वाली गोपियाँ, जिनके हृदय में दया थी, आशा थी, विश्वास था, प्रेम का आदान-प्रदान था, इसी यमुना के कछारों में वृक्षों के नीचे, बसन्त की चाँदनी में, जेठ की धूप में छाँह लेती हुई, गोरस बेचकर लौटती हुई, गोपाल की कहानियाँ कहतीं। निर्वासित गोपाल की सहानुभूति से उस क्रीड़ा के स्मरण से, उन प्रकाशपूर्ण आँखों की ज्योति से, गोरियों की स्मृति इन्द्रधनुष-सी रंग जाती। वे कहानियाँ प्रेम से अतिरंजित थीं, स्नेह से परिप्लुत थीं, आदर से आर्द्र थीं, सबको मिलाकर उनमें एक आत्मीयता थी, हृदय की वेदना थी, आँखों का आँसू था! उन्हीं को सुनकर, इस छोड़े हुए ब्रज में उसी दुःख-सुख की अतीत सहानुभूति से लिपटी हुई कहानियों को सुनकर आज भी हम-तुम आँसू बहा देते हैं! क्यों वे प्रेम करके, प्रेम सिखलाकर, निर्मल स्वार्थ पर हृदयों में मानव-प्रेम को विकसित करके ब्रज को छोड़कर चले गये चिरकाल के लिए। बाल्यकाल की लीलाभूमि ब्रज का आज भी इसलिए गौरव है। यह वही ब्रज है। वही यमुना का किनारा है!'

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