उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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वृन्दावन से दूर एक हरा-भरा टीला है, यमुना उसी से टकराकर बहती है। बड़े-बड़े वृक्षों की इतनी बहुतायत है कि वह टीला दूर से देखने पर एक बड़ा छायादार निकुंज मालूम पड़ता है। एक ओर पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जिनमें चढ़कर ऊपर जाने पर श्रीकृष्ण का एक छोटा-सा मन्दिर है और उसके चारों ओर कोठरी तथा दालानें हैं।
गोस्वामी श्रीकृष्ण उस मन्दिर के अध्यक्ष एक साठ-पैंसठ बरस के तपस्वी पुरुष हैं। उनका स्वच्छ वस्त्र, धवल केश, मुखमंडल की अरुणिमा और भक्ति से भरी आँखें अलौकिक प्रभा का सृजन करती हैं। मूर्ति के सामने ही दालान में वे प्रातः बैठे रहते हैं। कोठरियों में कुछ वृद्ध साधु और वयस्का स्त्रियाँ रहती हैं। सब भगवान का सात्त्विक प्रसाद पाकर सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं। यमुना भी यहीं रहती है।
एक दिन कृष्ण शरण बैठे हुए कुछ लिख कहे थे। उनके कुशासन पर लेखन सामग्री पड़ी थी। एक साधु बैठा हुआ उन पत्रों को एकत्र कर रहा था। प्रभात अभी तरुण नहीं हुआ था, बसन्त का शीतल पवन कुछ वस्त्रों की आवश्यकता उत्पन्न कर रहा था। यमुना उस प्रांगण में झाड़ू दे रही थी। गोस्वामी ने लिखना बन्द करके साधु से कहा, 'इन्हें समेटकर रख दो।' साधु ने लिपिपत्रों को बाँधते हुए पूछा, 'आज तो एकादशी है, भारत का पाठ न होगा?'
'नहीं।'
साधु चला गया। यमुना अभी झाड़ू लगा रही थी। गोस्वामी ने सस्नेह पुकारा, 'यमुने!'
यमुना झाड़ू रखकर, हाथ जोड़कर सामने आयी। कृष्णशरण ने पूछा-
'बेटी! तुझे कोई कष्ट तो नहीं है?'
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