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कंकाल
कंकाल
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9701
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आईएसबीएन :9781613014301 |
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
2
लखनऊ संयुक्तप्रान्त में एक निराला नगर है। बिजली के प्रभा से आलोकित सन्ध्या 'शाम-अवध' की सम्पूर्ण प्रतिभा है। पण्य में क्रय-विक्रय चल रहा है; नीचे और ऊपर से सुन्दरियों का कटाक्ष। चमकीली वस्तुओं का झलमला, फूलों के हार का सौरभ और रसिकों के वसन में लगे हुए गन्ध से खेलता हुआ मुक्त पवन-यह सब मिलकर एक उत्तेजित करने वाला मादक वायुमण्डल बन रहा है।
मंगलदेव अपने साथी खिलाड़ियों के साथ मैच खेलने लखनऊ आया था। उसका स्कूल आज विजयी हुआ है। कल वे लोग बनारस लौटेंगे। आज सब चौक में अपना विजयोल्लास प्रकट करने के लिए और उपयोगी वस्तु क्रय करने के लिए एकत्र हुए हैं।
छात्र सभी तरह के होते हैं। उसके विनोद भी अपने-अपने ढंग के; परन्तु मंगल इसमें निराला था। उसका सहज सुन्दर अंग ब्रह्मचर्य और यौवन से प्रफुल्ल था। निर्मल मन का आलोक उसके मुख-मण्डल पर तेज बना रहा था। वह अपने एक साथी को ढूँढ़ने के लिए चला आया; परन्तु वीरेन्द्र ने उसे पीछे से पुकारा। वह लौट पड़ा।
वीरेन्द्र-'मंगल, आज तुमको मेरी एक बात माननी होगी!'
मंगल-'क्या बात है, पहले सुनूँ भी।'
वीरेन्द्र-'नहीं, पहले तुम स्वीकार करो।'
मंगल-'यह नहीं हो सकता; क्योंकि फिर उसे न करने से मुझे कष्ट होगा।'
वीरेन्द्र-'बहुत बुरी बात है; परन्तु मेरी मित्रता के नाते तुम्हें करना ही होगा।'
मंगल-'यही तो ठीक नहीं।'
वीरेन्द्र-'अवश्य ठीक नहीं, तो भी तुम्हें मानना होगा।'
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