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उपन्यास >> कंकाल

कंकाल

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :316
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9701
आईएसबीएन :9781613014301

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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।


वह विधवा धनी थी, उसे पुत्र की बड़ी लालसा थी; परन्तु पति थे नहीं, पुनर्विवाह असम्भव था। उसके मन में किसी तरह यह बात बैठ गयी कि बाबाजी चाहे तो यही पुत्री पुत्र बन जायेगी। अपने इस प्रस्ताव को लेकर बड़े प्रलोभन के साथ वह मेरे पास आयी। मैंने देखा कि सुयोग है। उसने कहा- तुम किसी से कहना मत, एक महीने बाद मकर-संक्रांति के योग में यह किया जा सकता है। वहीं पर गंगा समुद्र हो जाती है, फिर लड़की से लड़का क्यों नहीं होगा, उसके मन में यह बात बैठ गयी। हम लोग ठीक समय पर गंगा सागर पहुँचे। मैंने अपना लक्ष्य ढूँढ़ना आरम्भ किया। उसे मन ही मन में ठीक कर लिया। उस विधवा से लड़की लेकर मैं सिद्धि के लिए एकांत में गया - वन में किनारे पर जा पहुँच गया। पुलिस उधर लोगों को जाने नहीं देती। उसकी आँखों से बचकर मै जंगल की हरियाली में चला गया। थोड़ी देर में दौड़ता हुआ मेले की ओर आया और उस समय में बराबर चिल्ला रहा था, 'बाघ! बाघ! लोग भयभीत होकर भागने लगे। मैंने देखा कि मेरा निश्चित बालक वहीं पड़ा है। उसकी माँ अपने साथियों को उसे दिखाकर किसी आवश्यक काम से दो चार मिनट के लिए हट गयी थी। उसी क्षण भगदड़ का प्रारम्भ हुआ था। मैंने झट उस लडकी को वहीं रखकर लड़के को उठा लिया और फिर कहने लगा- देखो, यह किसकी लड़की है। पर उस भीड़ में कौन किसकी सुनता था। मैं एक ही साँस में अपनी झोंपड़ी की ओर आया और हँसते-हँसते विधवा की गोद में लड़की के बदले लड़का देकर अपने को सिद्ध प्रमाण्ति कर सका। यहाँ पर कहने की आवश्यकता नहीं कि वह स्त्री किस प्रकार उस लड़के को ले आयी। बच्चा भी छोटा था, ढँककर किसी प्रकार हम लोग निर्विघ्न लौट आये। विधवा को मैंने समझा दिया था कि तीन दिन तक कोई इसका मुँह न देख सके, नहीं तो फिर लड़की बन जाने की संभावना है। मैं बराबर उस मेले में घूमता रहा और अब उस लड़की की खोज में लग गया। पुलिस ने भी खोज की; पर उसका कोई लेने वाला नहीं मिला। मैंने देखा कि एक निस्संतान चौबे की विधवा ने उस लड़की को पुलिस वालों से पालने के लिए माँग लिया। और अब मैं इसके साथ चला, उसे दूसरे स्टीमर में बिठाकर ही मैंने साँस ली। सन्तान-प्राप्ति में मैं उसका सहायक था। मैंने देखा कि यही सरला, जो आज मुझे भिक्षा दे रही है, लड़के के लिए बराबर रोती रही; पर मेरा हृदय पत्थर था, न पिघला। लोगों ने बहुत कहा कि तू उस लड़की को पाल-पोस, पर उसे तो गोविन्दी चौबाइन की गोद में रहना था।

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