उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
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आज कितने दिनों बाद विजय सरला की कोठरी में बैठा है। घण्टी लतिका के साथ बातें करने चली गयी। विजय को सरला ने अकेले पाकर कहा, 'बेटा, तुम्हारी भी माँ होगी, उसको तुम एक बारगी भूलकर इस छोकरी के लिए इधर-उधर मारे-मारे क्यों फिर रहे हो आह, वह कितनी दुखी होगी!'
विजय सिर नीचा किये चुप रहा। सरला फिर कहने लगी, 'विजय! कलेजा रोने लगता है। हृदय कचोटने लगता है, आँखें छटपटाकर उसे देखने के लिए बाहर निकलने लगती हैं, उत्कण्ठा साँस बनकर दौड़ने लगती है। पुत्र का स्नेह बड़ा पागल स्नेह है, विजय! स्त्रियाँ ही स्नेह की विचारक हैं। पति के प्रेम और पुत्र के स्नेह में क्या अंतर है, यह उनको ही विदित है। अहा, तुम निष्ठुर लड़के क्या जानोगे! लौट जाओ मेरे बच्चे! अपनी माँ की सूनी गोद में लौट जाओ।' सरला का गम्भीर मुख किसी व्याकुल आकांक्षा में इस समय विकृत हो रहा था।
विजय को आश्चर्य हुआ। उसने कहा, 'क्या आप के भी कोई पुत्र था?'
'था विजय, बहुत सुन्दर था। परमात्मा के वरदान के समान शीतल, शान्तिपूर्ण था। हृदय की अकांक्षा के सदृश गर्म। मलय-पवन के समान कोमल सुखद स्पर्श। वह मेरी निधि, मेरा सर्वस्व था। नहीं, मं् कहती हूँ कि कहीं है! वह अमर है, वह सुन्दर है, वही मेरा सत्य है। आह विजय! पचीस बरस हो गये उसे देखे हुए पचीस बरस! दो युग से कुछ ऊपर! पर मैं उसे देखकर मरूँगी।' कहते-कहते सरला की आँखों से आँसू गिरने लगे।
इतने में एक अन्धा लाठी टेकते हुए सरला के द्वार पर आया। उसे देखते ही सरला गरज उठी, 'आ गया! विजय, यही है उसे ले भागने वाला! पूछो इसी से पूछो!'
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