उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
लतिका आश्चर्य में थी और घण्टी प्रसन्न हो रही थी। उसने संकेत किया। विजय मन में विचारने लगा- क्या उत्तर दूँ, फिर सहसा उसे स्मरण हुआ कि वह मथुरा में एक निस्सहाय और कंगाल मनुष्य है। जब माता ने छोड़ दिया है, तब उसे कुछ करके ही जीवन बिताना होगा। यदि यह काम कर सका, तो...वह झटपट बोल उठा, 'आप जैसे सज्जन के साथ रहने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, परन्तु मेरा थोड़ा-सा सामान है, उसे ले आना होगा।'
'धन्यवाद! आपके लिए तो मेरा यही छोटा-सा कमरा आफिस का होगा और आपकी मित्र मेरी स्त्री के साथ रहेगी।'
बीच में ही सरला ने कहा, 'यदि मेरी कोठरी में कष्ट न हो, तो वहीं रह लेंगी।'
घण्टी मुस्कराई। विजय ने कहा, 'हाँ ठीक ही तो होगा।'
सहसा इस आश्रय के मिल जाने से उन दोनों को विचार करने का अवसर नहीं मिला।
बाथम ने कहा, 'नहीं-नहीं, इसमें मैं अपना अपमान समझूँगा।' घण्टी हँसने लगी। बाथम लज्जित हो गया; परन्तु लतिका ने धीरे से बाथम को समझा दिया कि घण्टी को सरला के साथ रहने में विशेष सुविधा होगी।
विजय और घण्टी का अब वहीं रहना निश्चित हो गया।
|