उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
दूसरे दिन प्रभात की किरणों ने जब विजय की कोठरी में प्रवेश किया, तब सरला भी विजय को देख रही थी। वह सोच रही थी- यह भी किसी माँ का पुत्र है - अहा! कैसे स्नेह की सम्पति है। दुलार में यह डाँटा नहीं गया, अब अपने मन का हो गया।
विजय की आँख खुली। अभी सिर में पीड़ा थी। उसने तकिये से सिर उठाकर देखा-सरला का वात्सल्यपूर्ण मुख। उसने नमस्कार किया। बाथम वायु सेवन कर लौटा आ रहा था, उसने भी पूछा, 'विजय बाबू, अब पीड़ा तो नहीं है?'
'अब वैसी तो नहीं है, इस कृपा के लिए धन्यवाद।'
'धन्यवाद की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुँह धोकर आइये, तो कुछ दिखाऊँगा। आपकी आकृति से प्रकट है कि हृदय में कला-सम्बंधी सुरुचि है।' बाथम ने कहा।
'मैं अभी आता हूँ।' कहता हुआ विजय कोठरी से बाहर चला आया। सरला ने कहा, 'देखा, इसी कोठरी के दूसरे भाग में सब सामान मिलेगा। झटपट चाय के समय में आ जाओ।' विजय उधर गया।
पीपल के वृक्ष के नीचे मेज पर एक फूलदान रखा है। उसमें आठ-दस गुलाब के फूल लगे हैं। बाथम, लतिका, घण्टी और विजय बैठे हैं। रामदास चाय ले आया। सब लोगों ने चाय पीकर बातें आरम्भ कीं। विजय और घण्टी के संबंध में प्रश्न हुए और उनका चलता हुआ उत्तर मिला- विजय काशी का एक धनी युवक है और घण्टी उसकी मित्र है। यहाँ दोनों घूमने-फिरने आये हैं।
बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में विचारा कि मुझे इससे क्या, सम्भव है कि ये कुछ चित्र खरीद लें, परन्तु लतिका को घण्टी की ओर देखकर आश्चर्य हुआ, उसने पूछा, 'क्या आप लोग हिन्दू हैं?'
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