उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'मैं संसार की सताई हूँ, ठोकर खाकर मारी-मारी फिरती हूँ। पिता! भगवान के क्रोध को, उनके न्याय को मैं आँचल पसारकर लेती हूँ। मुझे इसमें कायरता नहीं सताती। मैं अपने कर्मफल को सहन करने के लिए वज्र के समान सबल, कठोर हूँ। अपनी दुर्बलता के लिए कृतज्ञता का बोझ लेना मेरी नियति ने मुझे नहीं सिखाया। मैं भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि यदि तेरी इच्छा पूर्ण हो गयी, इस हाड़-मांस में इस चेतना को रखने के लिए दण्ड की अवधि पूरी हो गयी, तो एक बार हँस दे कि मैंने तुझे उत्पन्न करके भर पाया।' कहते-कहते सरला के मुख पर एक अलौकिक आत्मविश्वास, एक सतेज दीप्ति नाच उठी। उसे देखकर पादरी भी चुप हो गया। लतिका और बाथम भी स्तब्ध रहे।
सरला के मुख पर थोड़े ही समय में पूर्व भाव लौट आया। उसने प्रकृतिस्थ होते हुए विनीत भाव से पूछा, 'पिता! एक प्याली चाय ले आऊँ!'
बाथम ने भी बात बदलने के लिए सहसा कहा, 'पिता! जब तक आप चाय पियें, तब तक पवित्र कुमारी का एक सुन्दर चित्र, जो संभवतः किसी पुर्तगाली चित्र की, किसी हिन्दुस्तानी मुसव्वर की बनायी प्रतिकृति है, लाकर दिखलाऊँ, सैकड़ों बरस से कम का न होगा।'
'हाँ, यह तो मैं जानता हूँ कि तुम प्राचीन कला-सम्बन्धी भारतीय वस्तुओं का व्यवसाय करते हो। और अमरीका तथा जर्मनी में तुमने इस व्यवसाय में बड़ी ख्याति पायी है; परन्तु आश्चर्य है कि ऐसे चित्र भी तुमको मिल जाते हैं। मैं अवश्य देखूँगा।' कहकर पादरी कुरसी से टिक गया।
सरला चाय लाने गयी और बाथम चित्र। लतिका ने जैसे स्वप्न देखकर आँख खोली। सामने पादरी को देखकर वह एक बार फिर आपे में आयी। बाथम ने चित्र लतिका के हाथ में देकर कहा, 'मैं लैंप लेता आऊँ!'
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