उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
'हाँ पिताजी, हम लोग भी साथ ही चलेंगे।' कहते हुए बाथम भीतर गया और कुछ मिनटों में लतिका एक सफेद रेशमी धोती पहने बाथम के साथ बाहर आ गयी। बूढ़े पादरी ने लतिका से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'चलती हो मारगरेट?'
बाथम और जान भी लतिका को प्रसन्न रखने के लिए भारतीय संस्कृति से अपनी पूर्ण सहानुभूति दिखाते। वे आपस में बात करने के लिए प्रायः हिन्दी में ही बोलते।
'हाँ पिता! मुझे आज विलम्ब हुआ, अन्यथा मैं ही इनसे चलने के लिए पहले अनुरोध करती। मेरी रसोईदारिन आज कुछ बीमार है, मैं उसकी सहायता कर रही थी, इसी से आपको कष्ट करना पड़ा।'
'ओहो! उस दुखिया सरला को कहती हो। लतिका! इसके बपतिस्मा न लेने पर भी मैं उस पर बड़ी श्रद्धा करता हूँ। वह एक जीती-जागती करुणा है। उसके मुख पर मसीह की जननी के अंचल की छाया है। उसे क्या हुआ है बेटी?'
'नमस्कार पिता! मुझे तो कुछ नहीं हुआ है। लतिका रानी के दुलार का रोग कभी-कभी मुझे बहुत सताता है।' कहती हुई एक पचास बरस की प्रौढ़ा स्त्री ने बूढ़े पादरी के सामने आकर सिर झुका दिया।
'ओहो, मेरी सरला! तुम अच्छी हो, यह जानकर मैं बहुत सुखी हुआ। कहो, तुम प्रार्थना तो करती हो न पवित्र आत्मा तुम्हारा कल्याण करे। लतिका के हृदय में यीशु की प्यारी करुणा है, सरला! वह तुम्हें बहुत प्यार करती है।' पादरी ने कहा।
'मुझ दुखिया पर दया करके इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया है साहब! भगवान् इन लोगों का मंगल करे।' प्रौढ़ा ने कहा।
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