ई-पुस्तकें >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
किंतु पास ही रहो बालिके! मेरी हो तुम,
मैं हूं कुछ खिलवाड़ नहीं जो अब खेलो तुम?''
''आह न समझोगे क्या मेरी अच्छी बातें,
तुम उत्तेजित होकर अपना प्राप्य न पाते।
प्रजा क्षुब्ध हो शरण मांगती उधर खड़ी है,
प्रकृति सतत आतंक विकंपित घड़ी-घड़ी है।
सावधान, मैं शुभ कांक्षिणी और कहूं क्या!
कहना था कह चुकी और अब यहां रहूं क्या!''
''मायाविनी, बस पाली तुमने ऐसे छुट्टी,
लड़के जैसे खेलों में कर लेते खुट्टी।
मूर्त्तिमती अभिशाप बनी-सी सम्मुख आयी,
तुमने ही संघर्ष भूमिका मुझे दिखायी।
रुधिर भरी वेदियां, भयकरी उनमें ज्वाला,
विनयन का उपचार तुम्हीं से सीख निकाला।
चार वर्ण बन गये बंटा श्रम उनका अपना,
शस्त्र यंत्र बन चले, न देखा जिनका सपना।
आज शक्ति का खेल खेलने में आतुर नर,
प्रकृति संग संघर्ष निरंतर अब कैसा डर?
बाधा नियमों की न पास में अब आने दो।
इस हताश जीवन में क्षण-सुख मिल जाने दो।
राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो सब कुछ वैभव अपना,
केवल तुमको सब उपाय से कह लूं अपना।
|