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कामायनी
कामायनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9700
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आईएसबीएन :9781613014295 |
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जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना
''जीवन से सुख अधिक या कि दुख, मंदाकिनी कुछ बोलोगी?
नभ में नखत अधिक, सागर में बुदबुद हैं गिन दोगी?
प्रतिबिंबित हैं तारा तुम में, सिंधु मिलन को जाती हो
या दोनों प्रतिबिंब एक के इस रहस्य की खोलोगी!
इस अवकाश-पटी पर जितने चित्र बिगड़ते बनते हैं
उनमें कितने रंग भरे जो सुरधनु पट से छनते हैं,
किंतु सकल अणु पल में घुल कर व्यापक नील-शून्यता-सा,
जगती का आवरण वेदना का धूमिल-पट बुनते हैं।
दग्ध-श्वास से आह न किनले सजल कुहू में आज यहां!
कितना स्नेह जला कर जलता ऐसा है लघु-दीप कहां?
बुझ न जाय वह सांझ-किरण सी दीप-शिखा इस कुटिया की,
शलभ समीप नहीं तो अच्छा, सुखी अकेले जले यहां!
आज सुनूं केवल चुप होकर, कोकिल जो चाहे कल ले,
पर न परागों की वैसी है चहल-पहल जो थी पहले।
इस पतझड़ की सूनी डाली और प्रतीक्षा का संध्या,
कामायनी! तू हृदय कड़ा कर धीरे-धीरे सब सह ले!
बिरल डालियों के निकुंज सब ले दु:ख के निश्वास रहे,
उस स्मृति का समीर चलता है मिलन कथा फिर कौन कहे?
आज विश्व अभिमानी जैसे रूठ रहा अपराध बना,
किन चरणों को धोयेंगे जो अश्रु पलक के पार बहे!
अरे मधुर है कष्ट पूर्ण भी जीवन की बीती घड़ियां –
जब निस्संबल होकर कोई जोड़ रहा बिखरी कड़ियां।
वही एक जा सत्य बना था चिर-सुंदरता में अपनी,
छिपी कहीं, तब कैसे सुलझें उलझी सुख-दुख की लड़ियां!
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